________________
278 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर
इस उद्यान में पांच आदमी पहले ही से देवदत्ता नामक एक वेश्या को साथ लेकर क्रीड़ा करने आये थे। वे सब उद्यान के एक भाग में बैठे हुए थे। एक आदमी उस वेश्या को अपनी गोद में लिये बैठा था, दूसरा छत्र धारण कर उसके शिर पर छाया कर रहा था, तीसरा एक वस्त्र से उसे हवा कर रहा था, चौथा उसके केश सँवार रहा था और पांचवां उसके चरणों पर हाथ फेर रहा था। आतापना करते सुकुमारीका की दृष्टि उस वेश्या पर जा पड़ी, उसकी भोग अभिलाषा पूर्ण न हुई थी, इसलिए उसे देखते ही उसका चित्त चञ्चल हो उठा। उसने मन ही मन कामना की, कि इस तप के प्रभाव से इस रमणी की भांति मुझे भी पांच पति प्राप्त हो।" इसके बाद वह अपने शरीर को साफ रखने में बहुत तत्पर रहने लगी। यदि आर्याएं इसके लिए उसे मना करती, तो वह उनसे झगड़ा कर बैठती।
कुछ दिन तक उसकी यही अवस्था रही। अन्त में वह अपने मन में कहने लगी, कि पहले जब मैं गृहस्थ थी, तब ये आर्यायें मेरा बड़ा ही सम्मान करती थी। इस समय मैं भिक्षाचारिणी और इनके वेश में हो गयी हूँ, इसलिए इनके जी में जो आता है वही कहकर यह मेरी अवज्ञा किया करती हैं। मैं अब इनके साथ कदापि न रहूंगी।"
इस प्रकार विचारकर वह उनसे अलग हो गयी और अकेली रहने लगी। इसी अवस्था में उसने चिरकाल तक दीक्षा का पालन किया। अन्त में आठ महीने की संलेखना कर, अपने पापों की आलोचनां किये बिना ही उसने वह शरीर त्याग दिया। इस मृत्यु के बाद वह सौधर्म देवलोक में देवी हुई और उसे नवपल्योपम की आयु प्राप्त हुई। वहां से च्युत होकर वही अब द्रौपदी हुई है। पूर्वजन्म की आन्तरिक भावना के कारण इस जन्म में इसे पांच पति प्राप्त हो रहे हैं, इसलिए इसमें किसी को आश्चर्य न करना चाहिए।" . . ____ मुनिराज के मुख से यह वृत्तान्त सुनकर कृष्णादिक समस्त राजाओं को सन्तोष हो गया और वे द्रौपदी के इस कार्य की प्रशंसा करने लगे। इसके बाद पाण्डवों ने स्वयंवर में पधारे हुए समस्त राजाओं के सामने ही बड़े समारोह के साथ द्रौपदी से विवाह किया। वहां से राजा पाण्डु दशार्ह बलराम कृष्ण तथा अन्यान्य राजाओं को उनका स्वागत सम्मान करने के लिए अपने नगर ले गये। पाण्डवों की शादी के उपलक्ष में वहाँ भी बहुत दिनों तक धूम मची रही। यह