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20 तीसरा और चौथा भव
हमारे पाठक राजा अनंगसिंह और उसकी पुत्री रत्नवती को शायद अभी न भूले होंगे। उनका परिचय इसी परिच्छेद के आरम्भ में अंकित किया जा चुका है। रत्नवती के कमल नामक एक भाई भी था, वह कुबुद्धि के कारण एक दिन सुमित्र की बहिन को हरण कर ले गया। इस घटना से सुमित्र बहुत उदास हो गया, क्योंकि उसे यह भी पता न था कि यह कार्य किसने और किस उद्देश्य से किया है। एक विद्याधर के मुंह से यह समाचार चित्रगति ने सुना, तो उसने इस विपत्तिकाल में अपने प्यारे मित्र की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझा। उसने तुरन्त अपने विद्याधरों द्वारा सुमित्र को कहला भेजा, कि आपकी इस विपत्ति से मैं बहुत दुःखी हूँ, परन्तु आप कोई चिन्ता न करें। आपकी बहिन का पता लगाकर उसे जिस प्रकार हो, आपके पास पहुँचा देने का भार मैं अपने ऊपर लेता हूँ ।
चित्रगति की इस सान्त्वना से सुमित्र के व्यथित हृदय को शान्ति मिली । चित्रगति की यह सान्तवना केवल मौखिक ही न थी । बल्कि उसने दूसरे ही ' दिन उसका पता लगाने के लिये अपने नगर से सदल बल प्रस्थान कर दिया। मार्ग में उसे अपने गुप्तचरों द्वारा मालूम हुआ कि उसका हरण कमल ने किया है । इसलिए उसने अपनी समस्त सेना के साथ शिवमन्दिर नगर पर धावा बोल दिया । कमल में इतनी शक्ति कहाँ कि वह उसके सामने ठहर सके। जिस प्रकार गजेन्द्र कमल-नाल को उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार चित्रगति ने कमल की सेना को छिन्न-भिन्न कर डाला। वह युद्ध से मुख मोड़कर मैदान से भागने तैयारी करने लगा।
अपने पुत्र की पराजय का यह समाचार सुनकर राजा अनंगसिंह अपनी सेना के साथ वहाँ दौड़ आया और चित्रगति से युद्ध करने लगा। दोनों ने अपनी शस्त्रविद्या और भुजबल से काम लेने में कोई बात की कमी न रखी । घंटों युद्ध होता रहा, परन्तु दोनों में से कोई भी किसी को पराजित न कर सका, राजा अनंगसिंह ने जब देखा, कि इस शत्रु को जीतना बहुत ही कठिन है तब उसने उस खड्ग का स्मरण किया, जो उसके पूर्वजों को किसी देवता की कृपा से प्राप्त हुआ था। स्मरण करते ही वह खड्ग उसके हाथ में आ पहुँचा। वह खड्ग क्या था, मानो मूर्तिमान काल था । उसमें से अग्नि की ज्वाला के समान भयंकर लपटें निकल रही थी, जो बिजली की तरह चारों