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276 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर
यह बात तय हो जाने पर सागरदत्त सुकुमारिका के साथ सागर का ब्याह कर दिया। ब्याह के बाद सुहागरात मनाने के लिए वे दोनों एक सुन्दर कमरे में भेजे गये। वहां सागर ने ज्योंही अपनी नवविवाहिता पत्नी से स्पर्श किया, त्योंही उसके पूर्वकर्म के कारण सागर के अंगप्रत्यङ्ग में ऐसी ज्वाला उत्पन्न हुई, कि उसके लिए वहां ठहरना कठिन हो गया। परन्तु किसी तरह कुछ देर तक वह वहां रुका रहा और ज्योंही सुकुमारिका को निद्रा आयी, त्योंही वह .. वहां से भाग खड़ा हुआ।
कुछ देर बाद जब सुकुमारिका की निद्रा भंग हुई, उसने वहां पतिदेव को न पाया। इससे वह दुःखित होकर विलाप करने लगी। सुबह सुभद्रा ने एक दासी द्वारा उन दोनों के लिए दन्तधावन की सामग्री भेजी। सुकुमारिका उस समय भी रो रही थी और उसके पति का कहीं पता न था। उसने तुरन्त सुभद्रा से जाकर यह हाल कहा। सुभद्रा ने सागरदत्त से कहा और सागरदत्त ने जिनदत्त को उलाहना दिया। इससे जिनदत्त ने अपने पुत्र को एकान्त में बुलाकर. कहा-“हे पुत्र! तुमने प्रथम रात्रि में ही सागरदत्त की कन्या का त्यागकर बहुत ही अनुचित कार्य किया है। खैर, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम इसी समय उसके पास जाओ और उसे सान्त्वना देकर शान्त करो। तुम उसके निकट रहने के लिए बाध्य हो, क्योंकि मैंने अनेक सज्जनों के सामने इसके लिए प्रतिज्ञा की है।" ___सागर ने हाथ जोड़कर कहा-“पिताजी! इसके लिए मुझे क्षमा करिए। मैं आपकी आज्ञा से अग्नि में प्रवेश कर सकता हूँ, परन्तु सुकुमारिका के पास जाना मुझे स्वीकार नहीं है।"
सागरदत्त भी दीवाल की ओट से अपने जमाई की यह बातें सुन रहा था, इसलिए वह निराश होकर अपने घर चला गया। उसने सुकुमारिका से कह दिया कि सागर तुझ से विरक्त है, इसलिए अब उसकी आशा रखनी व्यर्थ है। तूं खेद मत कर! मैं शीघ्र ही तेरे लिए अब दूसरा पति खोज दूंगा।"
सागरदत्त ने इस प्रकार के वचनों द्वारा अपनी पुत्री को तो सान्त्वना दी, किन्तु इस घटना से उसका चित्त रात दिन दुःखी रहने लगा। एक दिन वह इस दु:ख से उदास हो अपने मकान के गवाक्ष पर बैठा हुआ था, इतने में एक