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274 * पाण्डव-जन्म और द्रौपदी-स्वयंवर दिखायी। गुरुदेव ने उसकी गन्ध से ही उसका दोष जानकर कहा—“हे वत्स! यदि तूं इसे भक्षण करेगा, तो तेरी मृत्यु हो जायगी। इसे तुरन्त परठ दे और कोई दूसरा आहार लाकर यत्न पूर्वक पारणा कर।" ___गुरुदेव का यह वचन सुनकर वह तरकारी परठने के लिए उद्यान से कुछ दूर जंगल में गया। वहां उस तरकारी का एक कण जमीन पर गिर पड़ा। थोड़ी देर में उसने देखा कि उसमें लगनेवाली समस्त चिटियाँ मरी जा रही हैं। यह देखकर उसने अपने मन में कहा-“यदि इसके एक कण से इतने जीव मरे जा रहे हैं, तो वह सब तरकारी परठ देने से इसके पीछे न जाने कितने जीवों की हत्या होगी। इससे तो यही अच्छा है, कि मैं अकेला ही इसे खाकर मर जाऊं ऐस करने पर अन्य जीवों के लिए कोई खतरा न रहेगा।"
इस प्रकार निश्चय कर धर्मरुचि ने स्वस्थचित्त से प्रसन्नता पूर्वक वह शाक खा डाला। इसके बाद सम्यक् प्रकार से आराधना कर, समाधि पूर्वक . उन्होंने प्राण त्याग दिये। अपने पुण्य प्रभाव के कारण मृत्यु के बाद सर्वार्थ सिद्ध नामक अनुत्तर विमान में वे अहमिन्द्र नामक देव हुए। ___ इधर धर्मरुचि के वापस आने में जब बड़ी देर हुई, तब धर्मघोषसूरि को उनके लिए चिन्ता हुई और उन्होंने अन्यान्य साधुओं को उनका पता लगाने के लिए भेजा, वे पता लगाते हुए शीघ्र ही उस स्थान में जा पहुंचे, जहां धर्मरुचि का मृत शरीर पड़ा हुआ था। वे उनके रजोहरणादिक लेकर गुरुदेव के पास लौट आये और उनको सारा हाल कह सुनाया। गुरुदेव ने अतिशय ज्ञान द्वारा नागश्री का दुश्चरित्र जानकर सब बातें अपने साधुओं को कह सुनायी। साधु
और साध्वियों को इससे बड़ा क्रोध आया और उन्होंने नगर में जाकर सोमदेव तथा अन्यान्य लोगों से यह हाल कह सुनाया। इससे चारों और नागश्री की घोर निन्दा होने लगी। सोमदेव आदि को भी उस पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे घर से निकाल दिया। इससे नागश्री बहुत दुःखित हो दर दर भटकने लगी। शारीरिक और मानसिक यातना के कारण उसे खांसी, दमा, बुखार और कुष्ट आदि भयंकर सोलह रोगों ने आ घेरा और वह इसी जन्म में घोर नरक के दुःख भोग करने लगी। कुछ दिनों के बाद भोजन और वस्त्र रहित अवस्था में भटकते भटकते उसकी मृत्यु हो गयी और वह छठे नरक की . अधिकारिणी हुई।