________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 269 इसके बाद भृगुकच्छ नगर में नर्मदा के तटपर वह एक धीवर के यहां पुत्री रूप में उत्पन्न हुई और उसका नाम काना रक्खा गया। परन्तु दुर्गन्धा और दुर्भगा होने के कारण उसके माता पिता उसे नर्मदा के तटपर छोड़ आये। किसी तरह जब वह बड़ी और समझदार हुई, तब मुसाफिरों को नाव में बैठा कर नदी पार कराने लगी, और उसी से अपना जीवन निर्वाह करने लगी।
एक बार शीतकाल में कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था। दैवयोग से उसी समय वही समाधिगुप्त मुनि वहां आ पहुंचे, जिन्हें लक्ष्मीवती ने दुर्वचन कहकर घर से निकाल दिया था। रात्रि के समय पर्वत की भांति निष्कम्प अवस्था में वे वहीं कायोत्सर्ग करने लगे। वह धीवर कन्या काना उन्हें देखकर सोचने लगी कि यह महात्मा सारी रात दुःसह शीत किस प्रकार सहन करेंगे? इस विचार से उसका हृदय आर्द्र हो उठा और उसने मुनिराज को तृण से ढक दिया।
- सुबह मुनिराज जब उस तृण से निकले, तब वह काना भक्तिपूर्वक उनके चरणों पर गिर पड़ी। मुनि ने भी भद्रक जानकर, उसे धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुनकर काना को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो पहले भी इस मुनि को मैंने कहीं देखा है। बहुत देर तक उसने इस बात पर विचार किया, किन्तु जब कोई बात उसे याद न आयी, तब उसने मुनिराज से प्रश्न किया कि-"महाराज!” मैंने कभी न कभी आपको देखा है।” इस पर मुनि ने उसके समस्त पूर्व जन्मों का वृत्तान्त उसे कह सुनाया। अन्त में उन्होंने कहा-“हे भद्रे! साधु की निन्दा . करने के कारण तूं इस जन्म में दुर्गन्धा हुई है, क्योंकि इस संसार में सब कुछ कर्मानुसार ही होता है तुझे अब उस कर्म को क्षय करने की चेष्टा करनी चाहिए।"
— मुनिराज की सारी बातें सुनकर काना को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसे साधु निन्दा की भी वह सब बातें स्पष्ट दिखायी देने लगी, जो उसने पूर्वजन्म में की थी। उसने बार-बार आत्मनिन्दा कर मुनिराज से अपने अपराध के लिए क्षमाप्रार्थना की। उस समय से वह श्राविका बन गयी और मुनिराज ने उस पर दयाकर उसे धर्मश्री नामक आर्या के सुपर्द कर दिया। तदनन्तर साध्वी के साथ विचरण करती हुई वह सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगी।
बहुत दिनों तक अपने साथ रखने के बाद धर्मश्री ने उसे नायल नामक