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266 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म सका। निदान, उसे अधूरा ही छोड़कर वह राजसभा से चन्द्रांभा के पास चला आया। उसे विलम्ब से आया देखकर चन्द्रभा ने पूछा—“आज इतनी देर . क्यों हुई?"
मधु ने कहा—“आज मैं एक स्त्री हरण का मामला निपटा रहा था। उसीमें देर हो गयी।
चन्द्राभा ने हंस कर कहा-"क्या आप उस अत्याचारी को दण्ड देंगे? ऐसे पुरुष तो आपके लिए परम पूज्य होने चाहिए।" ... ....
मधु ने कहा-"क्यों ? ऐसी बात किसलिए कहती हो? मैं तो परायी स्त्री भगाने वाले को कभी भी दण्ड दिये बिना नहीं रहता।" .
चन्द्राभा ने कहा- “यदि यही बात होती, तो आप अपने को भी कोई दण्ड, अवश्य देते। क्या आप पर स्त्री वंचक नहीं है?"
यह सुनकर मधु को ज्ञान उत्पन्न हुआ,और वह लज्जित हो गया। इसी समय गाता, नाचता और पागलों की सी चेष्टा करता हुआ कनकप्रभ भी उधर से आ निकला। उसे बालकों का एक दल चारों ओर से घेर कर तंग कर रहा था। उसकी यह-दशा देखकर चन्द्राभा को बड़ा ही दुःख हुआ। वह अपने मन में कहने लगी—“मेरे ही वियोग से पतिदेव की यह दुर्दशा हो गयी है। यह आज दुःखितावस्था में दर दर भटक रहे हैं और मैं राजमहल में बैठी हुई हुं। धिक्कार है, मेरे इस जीवन और ऐश्वर्य को।" ..
कनकप्रभ महल के समीप आया तब मधु को भी उसकी अवस्था दिखायी दी। उसे देखकर मधु को अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ और वह बार-बार अपनी निन्दा करने लगा। अन्त में इसी घटना को सोचते हुए उसे वैराग्य आ गया और अपने धुन्धु नामक पुत्र को राज्यभार सौंप, अपने भाई कैटभ के साथ विमल वाहन गुरु के निकट दीक्षा ले ली। तदनन्तर हजारों वर्ष तक उग्र तप कर, द्वादशाङ्गी को धारण करते तथा साधुओं की वैयावच्च साधते हुए अन्त में अनशन कर उन दोनों ने आलोचना पूर्वक शरीर त्याग दिये और महाशुक्र देवलोक में सामानिक देवे हुए।
उधर क्षुधा और तृषा के कारण तीन हजार वर्षों के बाद राजा कनकप्रभ