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श्री नेमिनाथ चरित 265
सेवा में उपस्थित हुआ। चन्द्राभा तो भेट की चीजें उसके चरणों के पास रख, उसे वन्दन कर अन्त:पुर में वापस चली गयी, किन्तु कनकप्रभ उसके चरणों के पास बैठकर अपने योग्य कार्य सेवा पूछने लगा | मधु चन्द्राभा को देखकर उस पर आसक्त हो गया था, इसलिए उसने कनकप्रभ से उसकी याचना की । कनकप्रभ उसके अनुचित प्रस्ताव से भला कब सहमत हो सकता था ? उसने नम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया। इस पर मधु उसे कल बलपूर्वक अपने साथ ले जाने को तैयार हुआ, किन्तु उसके मन्त्री ने उसे समझाया कि इस समय हम लोग रण यात्रा कर रहे हैं, इसलिए इस समय उसे साथ लेना अच्छा न होगा । इससे उस विचार को छोड़कर वह वहां से आगे बढ़ा और शीघ्र ही पल्लीपति भीम के प्रदेश में जा पहुंचा।
पल्लीपति को पराजित कर कुछ दिनों के बाद मधु उसी रास्ते से वापस लौटा। अभिमानी तो वह था ही, इस बार विजय के कारण वह और भी अधिक उन्मत्त हो रहा था । कनकप्रभ ने पूर्ववत् इस बार भी उसका स्वागत सत्कार कर उसकी सेवा में बहुमूल्य भेंट उपस्थित की, किन्तु मधु ने कहा"मुझे तुम्हारी यह भेंट नहीं चाहिए। मुझे चन्द्राभा दे दो, वही मेरे लिए सर्वोत्तम भेंट है । "
कनकप्रभ ने इस बार भी नम्रतापूर्वक इन्कार किया, किन्तु मधु ने उसकी एकं न सुनी। वह चन्द्राभा को बल पूर्वक रथ में बैठाकर अपने नगर की ओर चलता बना। कनकप्रभ में इतनी शक्ति न थी, कि वह उसके इस कार्य का पूरी तरह विरोध कर सके वह अपनी प्रियतमा के वियोग से मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। कुछ समय के बाद जब उसकी मूर्च्छा दूर हुई, तब वह उच्च स्वर से विलाप करने लगा। उसके लिए वास्तव में यह दुःख असह्य था। वह इसी दुःख के कारण पागल हो गया और चारों ओर भटक कर अपने दिन बिताने लगा ।
उधर मधुराजा चन्द्राभा को अपने अन्तःपुर में रख, उसके साथ आनन्द करने लगा। एक दिन उसकी राजसभा में एक पर स्त्री हरण का मामला पेश हुआ। मधु ने अपने मन्त्रियों के साथ उसका निर्णय करने की बड़ी चेष्टा की, किन्तु वह मामला इतना उलझनदार था, कि उस दिन उसका अन्त न आ