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262 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म श्रोताओं को वैराग्य आ गया फलत: उन्होंने भी उसी समय दीक्षा ले ली। उस . किसान को भी इन सब बातों से प्रतिबोध हो गया, परन्तु वह दोनों ब्राह्मण इससे अत्यन्त लज्जित हुए और अपनी हँसी सुनते हुए, उस समय तो चुपचाप अपने घर चले गये।
परन्तु सत्यमुनि के इस कार्य में उन दोनों को अपना अपमान दिखायी दिया, इसलिए उन दोनों ने उनसे बदला लेना स्थिर किया। इस निश्चय के अनुसार रात पड़ते ही वे दोनों तलवार लेकर उस उद्यान में मुनिराज को मारने के लिए जा पहुंचे। परन्तु मुनिराज को मारने के पहले ही सुमन यक्ष ने उन दोनों को स्तम्भित बना दिया। इससे उनकी चलने फिरने या कुछ करने की शक्ति नष्ट हो गयी और वे जहां के तहां खड़े रह गये। अपनी यह अवस्था देखकर वे दोनों रोने कलपने लगे। रात तो किसी तरह बीत गयी। सवेरा होते ही उनके माता पिता और नगर निवासी उनके आस पास आकर इकट्ठे हो गये
और उनकी इस दुरावस्था का कारण पूछने लगे परन्तु वे उनको कोई उत्तर न दे सके।
अग्निभूति और वायुभूति को निरुत्तर देखकर, उसी समय सुमन यक्ष प्रकट हुआ और उसने लोगों से कहा कि-"ये दोनों दुर्मति, मुनिराज को मारने आये थे, इसलिए मैंने स्तम्भित कर दिया है। अब यदि दोनों दीक्षा ग्रहण करें, तो मैं इन्हें मुक्त कर सकता हूं, अन्यथा नहीं।'
उन दोनों ने जब देखा कि दीक्षा लेने के सिवा ओर कोई गति नहीं है, तब उन्होंने कहा-“हे यक्ष! साधु धर्म अत्यन्त कठिन है, इसलिए हम लोग श्रावकधर्म ग्रहण करेंगे।"
उनका यह वचन सुनकर यक्ष ने दोनों को मुक्त कर दिया। उस समय से वे दोनों यथाविधि जैन धर्म का पालन करने लगे, परन्तु उनके माता पिता तो सर्वथा उससे वञ्चित ही रह गये कुछ दिनों के बाद अग्निभूति और वायुभूति की मृत्यु हो गयी और वे सौधर्म देवलोक में छ: पल्योपम आयुवाले देवता हुए। वहां से च्युत होने पर गजपुर में वे अर्हद्दास सेठ के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए और उनके नाम पूर्णभद्र तथा मणिभ्रद रक्खे गये। पूर्व संचित पुण्य के कारण इस जन्म में भी वे दोनों श्रावक ही हुए।