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18 * तीसरा और चौथा भव के बाद आप यहाँ से प्रस्थान करें तो बहुत अच्छा होगा!"
.. सुमित्र का यह अनुरोध अमान्य करना चित्रगति के लिए कठिन था। वे वहीं ठहर गये। सुमित्र को भी इस बहाने उनका आतिथ्य-सत्कार करने का मौका मिल गया। कई दिन देखते ही देखते बीत गये। इस बीच उन दोनों में घनिष्ट मित्रता हो गयी। सारा दिन क्रीड़ा-कौतुक और हास्य-विनोद में ही व्यतीत होता था, इसलिए चित्रगति को दिन जरा भी भारी मालूम नहीं होते
____ अन्त में एक दिन केवली भगवान भी वहाँ आ पहुँचे। उनका आगमन सुनकर राजा सुग्रीव और वे दोनों उन्हें वन्दन करने गये। केवली भगवान उस समय धर्मोपदेश दे रहे थे, इसलिए वे उन्हें वन्दन कर, उनका उपदेशं सुनने लगे। मुनिराज का उपदेश बहुत ही मर्मग्राही और सारपूर्ण था, 'इसलिए श्रोताओं पर उसका बड़ा ही अच्छा प्रभाव पड़ा।
धर्मोपदेश पूर्ण होने पर चित्रगति ने मुनिराज से कहा-“हे भगवन् ! आज आपका उपदेश सुनकर मुझे आर्हत् धर्म का वास्तविक ज्ञान हुआ है। यह मेरा सौभाग्य ही था, जो सुमित्र से मेरी भेंट हो गयी, वर्ना मैं आपके दर्शन से वञ्चित ही रह जाता। मैं अब तक उस श्रावक धर्म को भी न जान सका था, जो हमारे यहाँ कुल परम्परा से प्रचलित है।" . .
इतना कहकर चित्रगति ने केवली भगवान के निकट सम्यक्त्व मूलक श्रावक धर्म ग्रहण किया। इसके बाद राजा ने केवली भगवान से पूछा"भगवन् ! संसार की कोई भी बात आप से छिपी नहीं है। आप सर्वज्ञाता हैं। दयाकर बतलाइये कि मेरे प्रिय पुत्र को विष देकर भद्रा कहाँ चली गयी? वह इस समय कहाँ है और क्या कर रही है?"
मुनिराज ने कहा-“वह यहाँ से भागकर एक जंगल में गयी थी। वहाँ पर भील्लों ने उसके गहने छीनकर उसे अपने राजा के हाथों में सौंप दिया। उसने उसे एक वणिक के हाथ बेच दिया। किसी तरह वह उसके चंगुल से भी भाग निकली, परन्तु उसके भाग्य में अब सुख और शान्ति कहाँ ? वह फिर एक जंगल में पहुँची और वहाँ दावानल में जलकर खाक हो गयी। इस प्रकार रौद्र ध्यान से मृत्यु होने पर इस समय वह प्रथम नरक का दु:ख भोग रही है। वहाँ