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258 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म उसे गोद में लेकर देखा। वही वास्तव में वैसा ही रूपवान था, जैसा दासी ने बतलाया था। उसकी कान्ति से समस्त दिशाएं प्रद्योदित हो रही थी, इसलिए कृष्ण ने उसका नाम प्रद्युम्न रक्खा।।
इसी समय पूर्वजन्म के वैर के कारण, धूमकेतु नामक एक देव रुक्मिणी का वेश धारण कर वहां आया और कृष्ण के हाथ से उस बालक को लेकर वैताढय पर्वत पर चला गया। वहां भूत रमण उद्यान की टंक शिला पर बैठकर वह अपने मन में कहने लगा—मैं इस बालक को छलपूर्वक यहां तो उठा ले. आया, पर अब इसे क्या करूं? मैं इसे शिलापर पटककर मार सकता हूँ, परन्तु इससे इसकी शीघ्र ही मृत्यु हो जायगी और इसे कोई कष्ट न होगा हां.. यदि मैं इसे इसी शिला पर छोड़कर चला जाऊं तो यह रो रोकर अवश्य मर . जायगा। यही दण्ड इसके लिए उपयुक्त भी है।"
___ इस प्रकार विचारकर धूमकेतु प्रद्युम्न को उसी शिला पर छोड़कर अपने वासस्थान को चला गया। परन्तु प्रद्युम्न चरम शरीरी और निरूपक्रम आयुषी होने के कारण, उस शिला से लुढ़ककर एक ऐसे स्थान में जा गिरा, जहां पत्तों का ढेर लगा हुआ था। इससे उसे जरा भी चोट न आयी। इसी समय काल संवर नामक विद्याधर विमान में बैठकर उधर से आ निकला। वह अग्निज्वाल नामक नगर से अपने नगर की ओर जा रहा था। प्रद्युम्न के पास पहुंचते ही उसका विमान रुक गया। कालसंवर इसके कारण पर विचार करता हुआ भूमि पर उतरा, तो उसकी दृष्टि उस तेजस्वी बालक पर जा पड़ी। उसने अपने मन में कहा-“मालूम होता है कि यह बालक कोई महात्मा है और इसीके कारण मेरा विमान रुक गया है।" यह सोचकर उसने उस बालक को उठा लिया और उसे अपने मेघकूट नामक नगर में ले जाकर अपनी पत्नी कनकमाला को दे दिया। उसने लोगों से कहा कि मेरी पत्नी के गूढ गर्भ था और उसीने आज इस पुत्र को जन्म दिया है। बड़े समारोह के साथ उसका जन्मोत्सव मनाकर, उसने भी उसका नाम प्रद्युम्न रक्खा।
उधर थोड़ी देर में रुक्मिणी ने कृष्ण के पास आकर पूछा कि-"हे नाथ! आपका प्यारा पुत्र कहां हैं ?"
कृष्ण ने चकित होकर कहा—“अभी अभी तो तुम मेरे पास से ले गयी