SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 253 पटरानी बन गयी। कृष्ण ने उसके लिए ऐश्वर्य और ऐश आराम की समस्त सामग्रियाँ जुटा दी और वह वहीं रह कर कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक अपने दिन व्यतीत करने लगी। कुछ दिनों के बाद, एक दिन नारद मुनि वहां आये। कृष्ण ने उनका पूजन कर पूछा-“हे भगवन् ! आप तीनों लोक में सर्वत्र विचरण किया करते हैं। यदि कहीं कोई आश्चर्यजनक वस्तु दिखायी दी हो, तो उसका वर्णन कीजिए।" नारद ने कहा-“हे केशव! मैंने हाल ही में एक आश्चर्यजनक वस्तु देखी हैं। वैताढय पर्वत पर जाम्बवान नामक एक विद्याधर राजा राज्य करते हैं। उनकी पत्नी का नाम शिवचन्द्रा है। उनके विष्वक् सेन नामक एक पुत्र और जाम्बवती नामक एक पुत्री हैं। वह अभी तक कुमारी है। उसके समान रूपवती रमणी तीनों लोक में न तो मैंने देखी है, न सुनी ही है। वह राजहंसी की भांति क्रीड़ा करने के लिए सदा गंगा में जाया करती है। उसका अद्भुत सौन्दर्य देखकर ही. मैं तुम्हें उसकी सूचना देने आया हूँ।" __ कृष्ण को यह संवाद सुनाकर नारद तो अन्यत्र प्रस्थान कर गये। इधर कृष्ण ने जाम्बवती को अपनी रानी बनाने का निश्चय किया इसलिए वे अपनी . सेना को लेकर वैताढय पर्वत पर जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने देखा कि जाम्बवती अपनी सखियों के साथ खेल रही है। वह वास्तव में वैसी ही रूपवती थी, जैसा नारद ने बतलाया था। मौका मिलते ही उसे अपने रथ पर बैठाकर कृष्ण ने द्वारिका की राह ली। इससे चारों ओर घोर कोलाहल मच गंम। जाम्बवान ने तलवार खींचकर कृष्ण का पीछा किया, किन्तु अनाधृष्टि ने उसे पराजित कर बन्दी बना लिया। वह उसी अवस्था में उसे कृष्ण के पास ले गया। जाम्बवन ने देखा कि अब कृष्ण से विरोध करने में कोई लाभ नहीं है, तब उसने जाम्बवती का विवाह उनके साथ सहर्ष कर दिया। इसके बाद अपने . इस अपमान से खिन्न हो, उसने दीक्षा ले ली। ... जाम्बवान् के पुत्र विष्वक् सेन और जाम्बवती को अपने साथ लेकर कृष्ण द्वारिका लौट आये। वहां उन्होंने रुक्मिणी के निकट एक पृथक् महल में रुक्मिणी की ही भांति जाम्बवती के रहने की व्यवस्था कर दी। जाम्बवती का
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy