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________________ 252 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म पहले लक्ष्मीजी के दर्शन कर लें। यह सोच कर वे सब लक्ष्मी के मन्दिर में गयी और वहां सिर झुका झुका कर लक्ष्मी की प्रतिमा (रुक्मिणी) को प्रणाम . करने लगी। सत्यभामा ने तो हथ जोड़कर यह भी प्रार्थना की कि—“हे देवि! तुम ऐसा करोकि मैं प्राणनाथ की नवीन पत्नी को रूप में जीत लूं। यदि मेरा यह मनोरथ सफल होगा, तो मैं भक्ति पूर्वक तुम्हारी पूजा करूंगी।" इस प्रकार मिन्नत मान, सत्यभामा अन्यान्य रानियों के साथ, रुक्मिणी को देखने के लिए, श्रीप्रसाद में उसकी खोज करने लगी। वे सब महल का कोना कोना खोज आयीं, परन्तु कहीं भी रुक्मिणी का पता न चला। पता चल भी कैसे सकता था? रुक्मिणी ने तो लक्ष्मी का स्थान ग्रहण कर लिया था। वहां से सब पहले ही हो आयी थी, किन्तु किसी को खयाल तक न आया था, कि यही रुक्मिणी है। अन्त में जब वे निराश हो गयी, तब कृष्ण के पास वापस लौट गयी। वहां कृष्ण से अपनी परेशानी का हाल उन्होंने कह सुनाया। सुनकर कृष्ण हँस पड़े। उन्होंने कहा-“अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता ___इतना कह कृष्ण उन सबों को अपने साथ लेकर श्रीप्रसाद में आये। रुक्मिणी इस समय भी पूर्व की ही भांति लक्ष्मी के स्थान में बैठी हुई थी। किन्तु इस बार कृष्ण को देखकर वह खड़ी हो गयी और उसने कृष्ण से कहा—“हे नाथ! मुझे मेरी इन बहिनों का परिचय दीजिए। जिससे मैं अपनी बड़ी बहिन को प्रणाम कर सकू।" कृष्ण ने यह सुनकर रुक्मिणी को सत्यभाषा का परिचय देकर कहा“यही तुम्हारी बड़ी बहिन है।" यह सुनकर रुक्मिणी सत्यभामा को प्रणाम करने को उद्यत हुई, किन्तु सत्यभामा ने उसे रोक कर कहा-“नाथ! अब यह सर्वथा अनुचित होगा, क्योंकि अज्ञानता के कारण मैं इन्हें पहले ही प्रणाम कर चुकी हूँ!" __ कृष्ण ने हँस कर कहा—“खैर, कोई हर्ज नहीं। बहिन को प्रणाम करना अनुचित नहीं कहा जा सकता।" यह सुनकर सत्यभामा को बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ और वह बिलखती हुई अपने स्थान को चली गयी। कृष्ण की इस युक्ति से रुक्मिणी अनायास
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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