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250 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म
और कृष्ण रुक्मिणी को लेकर शीघ्रता के साथ आगे बढ़ गये। .. कुछ ही देर में रुक्मि और शिशुपाल एक बहुत बड़ी सेना लिये वहां आ पहुँचे। बलराम उनके स्वागत के लिए पहले ही खड़े थे। उन्होंने मूशलायुध फेंक कर बात ही बात में समस्त सेना को अस्तवयस्त कर डाला। यदि वह. हाथी और घोड़ों पर जा गिरता तो वे वहीं कुचल कर रह जाते और यदि रथ पर जा गिरता, तो वे घड़े की तरह टूट कर चूर्ण विचूर्ण हो जाते। इस प्रकार बलराम ने जब समस्त सेना को पराजित कर दिया, तब अभिमानी रुक्मि ने उनको ललकार कर कहा—“हे राम! केवल सेना को ही पराजित करने से काम न चलेगा। यदि तूं अपने को वीर मानता हो, तो मेरे सामने आ! मैं तेरा मान मर्दन करने के लिए यहां तैयार खड़ा हूँ!"
रुक्मि की यह ललकार सुनकर बलराम को बड़ा क्रोध आया। वे चाहते तो उसी समय मूशल प्रहार द्वारा उसका प्राण ले लेते, परन्तु उन्हें कृष्ण की सूचना याद आ गयी, इसलिए उन्होंने मूशल को किनारे रख बाणों से उसका रथ तोड़ डाला, बख्तर तोड़ डाला और अश्वों को भी मार डाला। बलराम की इस मार से रुक्मि बहुत ही परेशान हो गया। बलराम ने इसी समय उस पर क्षुरप्र बाण छोड़कर उसके केश मूंड लिये। इसके बाद उन्होंने हँसते हुए कहा-“हे रुक्मि! तुम मेरे भाई की पत्नी के भाई हो, इसलिए मारने योग्य नहीं हो! तुम अब यहां से चले जाओ! तुम्हारा शिर मूंडकर मैं तुम्हें जीता छोड़ देता हूँ। तुम्हारे लिये इतना ही दण्ड काफी हैं।' '
इतना कह बलराम ने उसे छोड़ दिया। किन्तु रुक्मि अपनी इस दुर्दशा से इतना लज्जित हो गया, कि उसे कुण्डिनपुर जाने का साहस ही न हुआ। उसने वहीं भोजकट नामक एक नया नगर बसाया और वहीं अपने बाल बच्चों को बुलाकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। ___ उधर कृष्ण रुक्मिणी के साथ सकुशल द्वारका पहुँच गये। नगर प्रवेश करते समय कृष्ण ने रुक्मिणी से कहा-“हे देवि! देखो, यही देव निर्मित रत्नमय मेरी द्वारिका नगरी है यहां कल्पवृक्षों से विराजित सुरम्य उद्यान में, तुम्हारे रहने की व्यवस्था मैं कर दूंगा। तूं वहां इच्छानुसार सुख भोग करें सकोगी।"