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246 * रुक्मिणी-हरण और प्रद्युम्न-जन्म अपना मुख देख रही थी। वह इस कार्य में इस प्रकार तन्मय हो रही थी. कि नारद की ओर उसका ध्यान भी आकर्षित न हुआ। इससे नारद रुष्ट हो गये
और चुपचाप वहां से बाहर निकल आये। वे अपने मन में कहने लगे“वासुदेव के अन्त:पुर में सदा नारद को सम्मान मिलता रहा है, परन्तु आज सत्यभामा ने न तो मुझे आसन ही दिया, न मेरा आदर सत्कार ही किया। एक तो वह रूपवती है, दूसरे अपने पति को अत्यन्त प्यारी है। मालूम होता है कि इसी से इसे गर्व हो गया है। यदि कृष्ण का ब्याह किसी ऐसी रमणी से करा दिया जाय, जो इससे भी अधिक सुन्दर हो, तो इसका यह गर्व नष्ट हो सकता है। मेरा सम्मान करना तो दूर रहा, उसने मेरी और आंख उठाकर देखा भी नहीं। इस अपराध के लिए मैं उसे अवश्य दण्ड दूंगा।" ____ इस प्रकार विचार करते हुए नारद मुनि कुण्डिनपुर पहुंचे। वहां के राजा का नाम भीष्मक और राणी का नाम यशोमती था। उनके रुक्मी नामक एक पुत्र और रुक्मिणी नामक एक सुन्दर पुत्री थी। भीष्मक के राजमन्दिर में पदार्पण करते ही रुक्मिणी से नारद की भेट हो गयी रुक्मिणी ने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। नारद ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा—“अर्धभरत के स्वामी कृष्ण तुझे वर रूप में प्राप्त हो!"
रुक्मिणी ने चकित हो नम्रता पूर्वक पूछा--"मुनिराज! कृष्ण कौन हैं और कहां रहते है?"
रुक्मिणी का यह प्रश्न सुनकर नारद ने कृष्ण का परिचय देते हुए उनके अद्भुत और असाधारण शौर्यादिक गुणों का हाल उसे कह सुनाया। अपना उद्देश्य पूर्ण करने के लिए उन्होंने यह सब बातें इस ढंग से वर्णन की कि उनका निशान ठीक स्थान पर जा लगा और रुक्मिणी मन ही मन कृष्ण पर अनुरक्त हो गयी। उसने निश्चय किया कि जहां तक हो सके, कृष्ण से ही ब्याह करना चाहिए।
इसी समय नारद ने एक पट पर रुक्मिणी का चित्र अंकित कर लिया और रुक्मिणी के हृदय में अनुराग का बीज बोकर वे कृष्ण के पास लौट आये। पश्चात् उन्होंने उनको वह चित्र दिखाया। चित्र देखकर कृष्ण ने पूछा-“हे भगवान् ! यह किस देवी का चित्र है?"