________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 239 रहता, तो उसके छ: पुत्र कंस के हाथ से कभी न मारे गये होते। अब तो यह बलराम और कृष्ण हमें प्राण से भी अधिक प्रिय हैं। इनका प्राण लेने के लिए इनकी याचना करना घोर अन्याय और धृष्टता है। स्वामी की यह आज्ञा हमलोग कदापि नहीं मान सकते।" ___ यह सुनते ही कृष्ण ने क्रुद्ध होकर कहा- "हे सोम! हम लोगों ने शिष्टाचार के कारण तुम्हारे स्वामी के प्रति जो आदरभाव दिखलाया, उससे क्या वह हमारा स्वामी हो गया? जरासन्ध को हम लोग किसी तरह अपना स्वामी नहीं मान सकते। तुम्हारे स्वामी ने जो सन्देश भेजा है, उससे मालूम होता है, कि वह भी अपनी वही गति कराना चाहता है, जो कंस की हुई है। इससे अधिक हमें कुछ नहीं कहना है। तुम्हें जो इच्छा हो, उससे जाकर कह सकते हो?" . ___यह सुनकर सोम और भी क्रुद्ध हो उठा। उसने समुद्रविजय से कहा"हे दशार्ह! तुम्हारा यह पुत्र कुलाङ्गार है। इसकी ऐसी धृष्टता कदापि क्षम्य नहीं हो सकती। तुम इसे हमारे हाथों में सौंप दो, फिर यह अपने आप ठीक हो जायगा।" . . .. यह सुनकर अनाधृष्टि ने लाल लाल आँखें निकाल कर कहा—“पिता
से. बार-बार दोनों पुत्रों को मांगते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? यदि अपने . जामाता की मृत्यु से जरासन्ध को दुःख हुआ है, तो क्या हमें अपने छ: भाइयों . . के मरने से दुःख नहीं हुआ? तुम्हारी इस धृष्टता को हम लोग कदापि क्षमा नहीं
करेंगे।" - राजा समुद्रविजय ने भी इसी प्रकार सोम की बहुत भर्त्सना की। इससे सोम कुद्ध होकर राजगृही को वापस चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसकी मांग बहुत ही अनुचित थी और वह कभी भी पूरी न की जा सकती थी। इस अवस्था में समुद्रविजय ने उसे जो उत्तर दिया था, वह सर्वथा उचित ही था। फिर भी इस विचार से वे व्याकुल हो उठे, कि जरासन्ध को इस उत्तर से सन्तोष न होगा और यदि उसने हम लोगों पर आक्रमण कर दिया, तो उससे लोहा लेना भी कठिन हो जायगा।
इन्हीं विचारों के कारण राजा समुद्रविजय चिन्ता में पड़ गये। अन्त में