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श्री नेमिनाथ-चरित * 237 - वसुदेव के मुख से यह सब हाल सुनकर समुद्रविजय के हृदय में वात्सल्य का स्रोत उमड़ पड़ा। उन्होंने भी कृष्ण को अपनी गोद में बिठाकर उनका बड़ा प्यार किया और यत्नपूर्वक उनकी रक्षा करने के लिए बलराम की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। वसुदेव के अन्यान्य भाई भी इसी तरह उन दोनों को गोद में ले लेकर उनकी प्रशंसा करने लगे। इसी समय देवकी भी वहां आ पहुंची। उनके साथ वह कन्या भी थी, जिसे कंस ने नासिका छेदकर जीवित छोड़ दिया था। उन्होंने भी कृष्ण को गले लगाकर बड़ा प्यार किया। ___यादवों ने आश्चर्य के साथ वसुदेव से पूछा- “हे महाभुज! आप अकेले ही समूचे जगत को जीतने में समर्थ हैं, फिर भी आप अपने पुत्रों को जन्मते ही मारने के लिए निर्दय कंस के हाथ में क्यों सौंप देते थे? उसका यह कार्य आप कैसे सहन कर लेते थे?" .
वसुदेन ने कहा- “संसार में सत्य से बढ़कर और कोई चीज नहीं है। सत्य की रक्षा करने के लिए ही मैंने उसका यह दुष्कर्म सहन किया है। मैं तो कृष्ण को भी जन्मते ही उसके हाथों में सौंप देता, परन्तु देवकी के आग्रह से मैं इसे गोकुल में रख आया था और वहां से नन्द पुत्री को अपने यहां ले आया था। कंस ने जाकर देखा कि देवकी के सातवें गर्भ से कन्या उत्पन्न हई है, तब उसने उपेक्षा के भाव से उसकी नाक छेदकर उसे जीवित छोड़ यिा। देवकी के
साथ तुम लोग इस समय जिस कन्या को देख रहे हो, वह वही कन्या है।" . इसके बाद राजा समुद्रविजय ने अपने बन्धुओं की सम्पत्ति से राजा उग्रसेन को बन्दीगृह से मुक्त कराया और उसके साथ समुद्रविजय आदि राजाओं ने यमुना नदी के तट पर कंस की उत्तर क्रिया की। कंस की माता और पत्नी आदि ने भी यमुना में स्नानकर उसे जलाञ्जली दी किन्तु जीवयशा ने लोगों के हजार समझाने बुझाने पर भी अपने पति को जलांजली न दी। उसने सबके सामने उच्च स्वर से प्रतिज्ञा की कि बलराम और कृष्ण तथा समस्त सन्तान सहित दसों दशा) को मरवाने के बाद ही मैं अपने पति की उत्तर क्रिया करूंगी। अन्यथा मैं स्वयं चिता में जल मरूंगी।"
इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वह अपने पिता के घर राजगृह नगर में चली गयी। इसके बाद बलराम और कृष्ण की इच्छानुसार राजा समुद्रविजय ने उग्रसेन को