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दूसरा परिच्छेद तीसरा और चौथा भव
इसी भरत-क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की उत्तर-श्रेणी में सुरतेज नामक नगर था, वहाँ पर सूर नामक एक खेचर चक्रवर्ती राज्य करता था। उसके विद्युन्मती नामक एक रानी थी। सौधर्म देवलोक में धनकुमार की आयु पूर्ण होने पर उन्होंने इसी रानी के उदर से पुत्र-रूप में जन्म लिया। सूर राजा ने बड़ी धूमधाम से उसका जन्मोत्सव मनाया और उसका नाम चित्रगति रखा। बड़ा होने पर उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया और कुछ ही दिनों में वह समस्त विद्या-कलाओं में पारंगत हो गया। . उसी वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिव-मन्दिर नामक एक नगर था, जिसमें अनंग सिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम शशिप्रभा था। धनवती ने इन्हीं के यहाँ पुत्री रूप में जन्म लिया। अब तक रानी के पुत्र तो कई हो चुके थे परन्तु कन्या एक भी न हुई थी, इसलिए वह • अपने माता-पिता को बहुत ही प्रिय लगती थी। शुभ मुहूर्त में पण्डितों के
आदेशानुसार उसका नाम रत्नवती रखा गया। जिस प्रकार जल सिंचने से लता की वृद्धि होती है, उसी प्रकार माता-पिता के यत्न से रत्नवती भी शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी। यथासमय उसके लिए स्त्रियोचित शिक्षा का प्रबन्ध किया गया
और उसने भी अनेक विद्या-कलाओं में पारदर्शिता प्राप्त कर ली। - समय बीतते देर नहीं लगती। देखते ही देखते रत्नवती ने किशोरावस्था
अतिक्रमण कर यौवन की सीमा में पदार्पण किया। राजा ने जब देखा कि इसकी अवस्था विवाह करने योग्य हो चली है, तब वे मन-ही-मन कुछ