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14 * तीसरा और चौथा भव
धन और धनवती के धार्मिक विचार एक समान होने के कारण उनका दाम्पत्य जीवन और भी मधुर बन गया। वे दोनों क्षणभर के लिए भी एक दूसरे से अलग न होते थे। राजा विक्रमधन अपने पुत्र और पुत्र-वधु का यह गाढ़ प्रेम देखकर बहुत ही प्रसन्न रहते थे। अंत में अपना अन्तिम समय समीप आया जानकर, उन्होंने धनकुमार का राज्याभिषेक कर दिया और वे स्वयं तपस्या करने चले गये। धनकुमार ने इस राज्य-भार को भी भलीभाँति सम्हाल लिया।
कुछ वर्षों के बाद एक दिन उद्यान के द्वारपाल ने धनकुमार के पास आकर कहा कि उद्यान में वसुन्धर नामक मुनिराज का आगमन हुआ है। मुनिराज वसुन्धर पहले भी एक बार उस उद्यान में पधारकर उसे पावन कर चुके थे, इसलिए धनकुमार उनसे भलीभाँति परिचित था। वह उसी समय धनवती को साथ लेकर उद्यान में गया और उन्हें वन्दन कर उनका उपदेश सुनने के लिए उनके पास बैठ गया। मुनिराज ने बहुत देर तक मर्मस्पर्शी धर्मोपदेश दिया उसे सुनकर धनकुमार को वैराग्य आ गया। उसने तुरन्त महल में आकर सारा राज्य-भार अपने जयन्तकुमार नामक पुत्र को सौंप दिया। इसके बाद उसी दिन दीक्षा ले ली। पतिव्रता धनवती ने भी उसी का अनुसरण किया। . धनकुमार के धनदत्त और धनदेव नामक दो भाइयों ने भी धनकुमार के साथ चारित्र ले लिया। राजर्षि धन ने गुरु के निकट रहकर घोर तपस्या और शास्त्राभ्यास करना आरम्भ किया, फलत: कुछ दिनों के बाद वे गीतार्थ बन गये। गुरुदेव ने यह देखकर आचार्य पद पर उनकी स्थापना की। धनसूरि ने अनेक राजाओं को धर्मोपदेश और दीक्षा दी। अन्त में सति धनवती के साथ उन्होंने अनशन व्रत ग्रहण कर एक महीने में अपने प्राण त्याग दिये। इसके बाद सौधर्म देवलोक में उन दोनों को देवत्व प्राप्त हुआ, जहाँ वे इन्द्र के बराबरी के माने जाने लगे। धनकुमार के दोनों भाई तथा समस्त शिष्यों को भी सौधर्म देवलोक में देवत्व की प्राप्ति हुई।
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