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228 * कंस-वध
मथुरा पहुँचने के बाद दोनों जन यथासमय कंस की राजा सभा में गये। उस समय भी वहां पर अनेक राजा धनुष चढ़ाने के लिए उपस्थिति थे। धनुष के पास ही साक्षात् लक्ष्मी के समान कमलनयनी सत्यभामा बैठी हुई थी। जो उसे देखता था, वही उस पर मुग्ध हो जाता था। सत्यभामा ने भी कृष्ण को देखा। देखते ही वह उन पर आशिक हो गयी। उसने मन ही मन अपना तनमन उनके चरणों में समर्पण कर दिया। साथ ही उसने भगवान से प्रार्थना की कि-“हे भगवान् ! मैं कृष्ण को अपना हृदय हार बनाना चाहती हूं। तुम उन्हें ऐसी शक्ति दो कि वे धनुष चढ़ाने में सफलता प्राप्त कर सकें।" ___ इधर अनाधृष्टि ने धनुष चढ़ाने की तैयारी की, परन्तु ज्योंही वह धनुष्न को उठाने गया, त्योंही उसका पैर बेतरह फिसल गया और वह ऊंट की तरह. मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ा। इससे अनाधृष्टि का हार टूट गया, मुकुट सरक गया और कुण्डल कान से निकल गये। उसकी यह अवस्था देखकर सत्यभामा कुछ लज्जित हो गयी, इसलिए उसने अपना मुख फेर लिया, किन्तु अन्य नरेश अपनी हँसी न रोक सके और वे ठठाकर हँस पड़े। अनाधृष्टि भी इससे कुछ लज्जित हो गया और एक और जाकर अपने गहने-कपड़े ठीक करने लगा।
परन्तु राजाओं की यह हँसी कृष्ण को बहुत ही बुरी और अपमानजनक मालूम हुई। उन्होंने उसी समय पुष्पमाल की भांति अनायास उस धनुष को उठा लिया और उसे एक ओर से झुकाकर क्षणमात्र में उसकी प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। कृष्ण वैसे भी परमतेजस्वी थे, किन्तु इस समय उनका चेहरा और भी चमक उठा। धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाने के लिए झुके हुए कृष्ण इस प्रकार शोभा देने लगे, जिस प्रकार वर्षाकाल में इन्द्रधनुष से युक्त मेघ शोभा देते हैं। धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाने के बाद कृष्ण ने उसे उसी स्थान में पूर्ववत् रख दिया और वे वहां से चुपचाप बाहर निकल आये।
यह सब बातें इतनी जल्दी हो गयी, कि धनुष किसने चढ़ाया, यह भी लोगों को अच्छी तरह मालूम न हो सका। कृष्ण राजसभा से बाहर निकल कर अनाधृष्टि के पास आये और दोनों जन रथपर बैठकर वसुदेव के पास आये। वहां कृष्ण को स्थपर छोड़ कर अनाधृष्टि अकेला ही पिता से मिलने गया। उसे