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222 * नेमिनाथ भगवान का जन्म नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। उसके शरीर की कांति मरकत रत्न के समान और देह शंख लाञ्छन से सुशोभित हो रही थी। राजा और रानी के नेत्र इस पुत्र-रत्न को देखते ही मानो शीतल और तृप्त हो गये।
इस पुत्र का जन्म होते ही छप्पन दिशीकुमारिकाओं ने अपने-अपने स्थान से आकर शिवादेवी का प्रसूति—कर्म किया। इसके बाद पञ्चरूप धारण कर सौधर्मेन्द्र भी वहां आये। उन्होंने एक रूप से प्रभु का प्रतिबिम्ब माता के पास रखकर, उन्हें अपने हाथों में उठा लिया, और दो रूपों से दोनों ओर दो चमर, तथा एक से छत्र धारण किया, और पांचवें रूप से उनके आगे आगे वज्र उछालते हुए, उन्हें भक्ति पूर्वक मेरु पर्वत के शिर पर अति पाण्डुकंबला नामक शिला पर ले गये। वहां प्रभु को अपनी गोद में स्थापित कर शक्र मे एक सिंहासन पर स्थान ग्रहण किया और अच्युत आदि तिरसठ इन्द्रों ने भक्ति पूर्वक भगवान को पक्षाल कराया। फिर शक्रेन्द ने भी भगवान को ईशानेन्द्र की गोद में बिठाकर उन्हें विधि पूर्वक पक्षाल कराया। , . भगवान को पक्षाल कराने के बाद शक्रेन्द ने दिव्य पुष्पों द्वारा उनकी पूजा और आरती की। इसके बाद हाथ जोड़कर उन्होंने इस प्रकार उनकी स्तुति की
"हे मोक्षगामिन् ! हे शिवादेवी की कुक्षिरूपी सीप के मुक्ताफल! हे प्रभो! हे शिवादेवी के रत्न! आपके द्वारा हमारा कल्याण हो! हे बाईसवें तीर्थंकर! मोक्षसुख जिसके करतल में है, जिसे समस्त पदार्थों का ज्ञान है, जो विविध लक्ष्मी के निधान रूप हैं, ऐसे आपको अनेकानेक नमस्कार हो! हे जगद्गुरु! यह हरिवंश आज पवित्र हुआ, यह भारतभूमि भी आज पावन हुई, क्योंकि आप जैसे चरम शरीरी तीर्थाधिराज का इसमें जन्म हुआ है। हे त्रिभुवन वल्लभ! जिस प्रकार लता समूह के लिए मेघ आधार रूप होते है। उसी प्रकार संसार के लिए आप आधार रूप हैं। आप ब्रह्मचर्य के स्थान और ऐश्वर्य आश्रय रूप हैं। हे जगत्पत! आपके दर्शन से भी प्राणियों का मोह नष्ट होकर उन्हें दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है। हे हरिवंशरूपी वन के लिए जलधर समान! आप अकारण ज्ञाता हैं, अकारण वत्सल हैं और अकारण समस्त