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श्री नेमिनाथ-चरित * 211 व्यर्थ हो जायगा। उन्होंने जो कहा है, वह तो एक दिन होकर ही रहेगा, लेकिन मुझे अभी से निराश न होकर अपनी रक्षा का उपाय करना चाहिए। वसुदेव मेरे मित्र हैं। यदि मैं उनसे देवकी के सात गर्भ मांग लूं, तो इस विपत्ति से अनायास मेरी रक्षा हो जायगी। मेरी धारणा है कि वसुदेव गर्भ देने से कदापि इन्कार न करेंगे। किन्तु यदि वे इन्कार करेंगे, तो मैं किसी दूसरे उपाय का अवलम्बन करूंगा।" .. यह सोचकर कंस मदोन्मत्त की भांति झूमता झामता वसुदेव के पास गया। वसुदेव को देखते ही उसने दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया। वसुदेव भी कंस को देखकर खड़े हो गये। उन्होंने उसका समुचित सत्कार कर उसे योग्य आसन पर बैठाया। इसके बाद उन्होंने कहा-“हे मित्र! तुम मुझे प्राण से भी अधिक प्रिय हो। तुम्हारी मुखाकृति से मालूम होता है कि तुम कुछ कहना चाहते हो। मेर निकट तुम्हें संकोच करने की आवश्यकता नहीं। मेरे योग्य जो कुछ कार्य सेवा हो, सहर्ष सूचित करो।" ___कंसने कहा-“हे मित्र! जरासन्ध से जीवयशा दिला कर तुमने मुझ पर जो उपकार किया था, उसके भार से मैं अब तक दबा हुआ हूँ। किन्तु अब मुझ पर एक उपकार और कीजिए। वह यह कि. मुझे देवकी के सात गर्भो की आवश्यकता है। क्या आप देने की कृपा करेंगे?" - कंस की यह याचना सुनकर वसुदेव पहले तो कुछ विचार में पड़ गये, किन्तु बाद में उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। देवकी ने भी इसमें कोई आपत्ति न की। बल्कि उसने कहा- "हे कंस! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। .. मेरे बच्चों को तुम अपने ही समझना। तुम्हींने हम दोनों का यह योग मिलाया है। क्या हम लोग इतनी ही देर में तुम्हारा उपकार भूलकर अकृतज्ञ बन जायेंगे? नहीं नहीं यह कदापि नहीं हो सकता। तुम्हारे इस उपकार के बदले हम लोग जो भी करें, वह थोड़ा ही है।"
देवकी की यह बातें सुनकर वसुदेव ने कहा- "प्रिये! कंस से इस विषय में कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। तुम अपने सात बच्चे उत्पन्न होते ही इन्हें दे देना। इस सम्बन्ध में अब कुछ भी सोचने या कहने सुनने की जरूरत नहीं है।"