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श्री नेमिनाथ-चरित * 207 और उसने उनके चले जाने पर समुद्रविजय से उनका परिचय पूछा। समुद्रविजय ने कहा-"प्राचीनकाल में इस नगर के बाहर यज्ञयशा नामक एक तापस रहता था। उसके यज्ञदत्ता नामक एक भार्या और सुमित्र नामक एक पुत्र भी था। सुमित्र की पत्नी का नाम सोमयशा था। मुंभक देवताओं में से कोई देवता च्युत होकर उसी के उदर से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और उसी का नाम नारद पड़ा।
जिन तापसों के यहां नारद का जन्म हुआ था, वे एक प्रकार का व्रत किया करते थे। उस व्रत की विधि यह थी कि एकदिन उपवास करना और दूसरे दिन जंगल में जाकर फलों द्वारा पारणा करना। एक दिन वे लोग नारद को एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठा कर पारणे के लिए फल लेने चले गये। इसी समय उधर से मुंभक. देवता आ निकले और उस सुन्दर बालक को अशोक वृक्ष के नीचे अकेला देखकर उसके पास खड़े हो गये। इसके बाद अवधिज्ञान से उन्हें जब यह मालूम हुआ कि पूर्व जन्म में वह भी जुंभक देवता और उनका एक मित्र था, तब उन्होंने उस वृक्ष की छाया को स्थिर बना दिया, जिससे उस पर धूप न आ सके।. . . इतना कर मुंभक देवता उस समय तो अपने काम में चले गये, किन्तु काम निपटाकर जब वे उधर फिर लौटे तो उस समय भी उस बालक को उन्होंने उसी स्थान में पाया स्नेहवश वे इस बार उसे वैताढय पर्वत पर उठा ले गये। वहां पर एक गुफा में उन्होंने उसे पाल पोसकर बड़ा किया। जब उसकी
अवस्था आठ वर्ष की हुई, तब उन्होंने उसे प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं की शिक्षा '. 'दी। इसके बाद वही बालक बड़ा होने पर नारदमुनि के नाम से विख्यात हुआ। नारदमुनि अपनी विद्याओं के बल आकाश में विचरण करते हैं। वे इस अवसर्पिणी में नवें नारद और चरम शरीरी है। नारद की उत्पत्ति का यह हाल मुझे त्रिकालज्ञानी सुप्रतिष्ठ मुनि ने बतलाया था। नारद मुनि स्वभाव से कलह प्रिय हैं। यदि कोई उनकी अवज्ञा करता है, तो वे रुष्ट हो जाते हैं। शायद इसी कारण से उनकी सर्वत्र पूजा होती है। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे कहीं भी एक स्थान में स्थिर नहीं रहते। नारद की बाल्यावस्था में मुंभक देवताओं ने जिस अशोक की छाया स्थिर कर दी थी, उस समय से पृथ्वीपर