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श्री नेमिनाथ-चरित * 201 जो शत्रुजय और दन्त वक्र की थी। ज्योंही यह तीनों राजा मारे गये, त्योंही मैदान साफ हो गया। अब वसुदेव के सामने आने की किसी की हिम्मत न रही।
- वसुदेव के इस पराक्रम से चकित होकर जरासन्ध ने समुद्र विजय से कहा-“हम लोगों ने इसे बाजावाला समझ कर बड़ी भूल की है। पहले तो हम सब राजा बड़ी बड़ी बातें बनाते थे, परन्तु अब इसके सामने आने का किसी को साहस ही नहीं पड़ता है। हे समुद्रविजय ! अब तुम्हीं एक ऐसे वीर हो जो इसका मान मर्दन कर सकते हो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हैं कि इसे पराजित करने पर रोहिणी तुम्हारी ही होगी।"
समुद्रविजय ने कहा-“राजन् ! मुझे परस्त्री की आवश्यकता नहीं है। किन्तु आपके आदेशानुसार मैं इस प्रबल शत्रु से युद्ध करने के लिए तैयार
- इतना कह समुद्रविजय अपने बन्धु वसुदेव के साथ युद्ध करने लगे। उन दोनों में दीर्घकाल तक युद्ध होता रहा, किन्तु कोई किसी को पराजित न कर सका। वसुदेव का पराक्रम देखकर समुद्रविजय भी मन ही मन संकोच कर गये। इसी समय वसुदेव ने एक अक्षर बाण छोड़ा, जो समुद्रविजय के चरणों पर जा गिरा। समुद्रविजय ने उसे उठाकर पढ़ा। उसमें लिखा था कि-"मैं
आपका भाई वसुदेव, जो कपट पूर्वक गायब हो गया था, आपको प्रणाम .. करता हूँ!"
बाण का यह लेख पढ़ते ही समुद्रविजय ने अपने शस्त्र जमीन पर फेंक दिये। ओह ! मैं अपने भाई से ही युद्ध कर रहा हूँ ? यह सोचते और हे वत्स! हे वत्स! कहते हुए वे वसुदेव को गले लगाने के लिये दौड़ पड़े। उनको अपनी
ओर आतें देखकर वसुदेव भी रथ से उतरकर उनकी ओर आगे बढ़े। मार्ग में दोनों भाईयों की भेट हो गयी। वसुदेव समुद्रविजय के चरणों पर गिर पड़े और समुद्रविजय ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया। रणभूमि में दोनों भाइयों का यह मिलन एक अद्भुत दृश्य स्थापित कर रहा था। जिसने इस दृश्य को देखा, उसीका नेत्र, और तन मन तृप्त हो गया।
शान्त होने पर समुद्रविजय ने वसुदेव से पूछा- “हे भाई! तुम्हें अपना