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________________ 200 * रोहिणी का पाणिग्रहण वही उसका वर होता है। यही स्वयंवर का सिद्धान्त है, जो हमारे यहां अनादि काल से चला आ रहा है।" यह सुनकर विदुर नामक एक न्यायी राजा ने कहा- "रुधिरराज! आपका कहना ठीक है, परन्तु वर से उसका कुलादिक पूछना तो जरूरी है।" वसुदेव बीच ही में बोल उठे कि इस समय कुल बतलाने की जरूरत नहीं है। मैं चाहे जो, और चाहे जैसा होऊ, किन्तु इस समय सब लोगों को तो केवल यही देखना चाहिये, कि कन्या ने मुझे पसन्द किया है या नहीं ? अब यह मेरी स्त्री है और इस पर मेरा पूर्ण अधिकार है। यदि कोई इसका हरण करेगा तो मैं अपना भुजबल दिखाकर उसे अपने कुल का परिचय दूंगा।" .. वसुदेव के यह धृष्टतापूर्ण वचन सुनकर जरासन्ध आग बबूला हो उठा। उसने समुद्रविजय आदिक राजाओं से कहा-"इस अधम रुधिरराज ने स्वयंवर के बहाने हम लोगों को यहां बुलाकर हमारा घोर अपमान किया है, इसलिए सबसे पहले इसी को दण्ड देना चाहिए। हमारा दूसरा शत्रु यह पटह बजाने वाला है। राजकन्या को पाकर इसे भी इतना गर्व हो गया है, कि हम लोगों को भला बुरा कहने में भी इसे संकोच नहीं होता। इसलिए अब इन दोनों को इसी समय मार डालना चाहिए।" ____ जरासन्ध के यह वचन सुनते ही समुद्रविजय आदिक राजा शुद्ध करने के लिये तैयार हो गये। वसुदेव भी असावधान न थे। दधिमुख विद्याधर उनके लिए रथ लेकर तैयार ही खड़ा था। वेगवती की माता अंगारवती ने उनको जो धनुष और भाले दिये थे, उन्हें लेकर वे इसी रथ पर बैठ गये, रुधिरराजा की सेना बहुत बड़ी न थी, किन्तु वह भी विपक्षियों से युद्ध करने के लिए तैयार हो गयी। देखते ही देखते दोनों दल एक दूसरे से भिड़ गये और वह रमणीय स्थान भयानक समरस्थली के रूप में परिणत हो गया। रुधिरराज की सेना बहुत ही निर्बल थी, इसलिए जरासन्ध आदि ने पहले ही आक्रमण में उसे काट छांट डाला, किन्तु इसके बाद वसुदेव सम्हल गये और प्रत्येक राजा को चुन चुन कर मारने लगे। सबसे पहले उन्होंने अपना हाथ शत्रुञ्जय राजा पर साफ किया। इसके बाद वे दन्तवक्र को ले बीते। उसके बाद शल्यराज उनके सामने आया उसकी भी वसुदेव ने वही गति की
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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