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12 : पहला और दूसरा भव
नगर
क्रमशः धनवती और धनकुमार का ब्याह हुए बहुत दिन बीत गये । उन दोनों ने गार्हस्थ सुख उपभोग करते हुए बरसों का समय क्षण की तरह बिता दिया । व्याह होने के कई वर्ष बाद एक दिन धनकुमार घोड़े पर सवार हो, के बाहर अपने उपवन में सैर करने के लिए गये। वहाँ उन्होंने चतुर्ज्ञान धारी एक मुनिराज को धर्मोपदेश देते हुए देखा। वे उन्हें प्रणाम कर उनके निकट बैठ गये और उनका अमृत के समान धर्मोपदेश सुनने लगे।
उधर राजा विक्रमधन भी मुनिराज के आगमन का समाचार सुनकर रानी धारिणी और धनवती आदि को साथ लेकर उन्हें वन्दन करने और उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए आ पहुँचे । मुनिराज का उपदेश समाप्त होने पर राजा विक्रमधन ने उनसे पूछा - " हे क्षमा श्रमण ! जिस समय धन कुमार गर्भ में था । उस समय इसकी माता को स्वप्न में एक आम्रवृक्ष दिखायी दिया. था और किसी ने उससे कहा था कि यह वृक्ष यथासमय नव बार अन्यान्य स्थानों में रोपित करने पर उत्तरोत्तर उत्कृष्ट फल प्रदान करेंगा। स्वप्न पाठकों से इसका तात्पर्य पूछने पर वे कुछ भी न बतला संके। यदि आप बतलाने की कृपा करेंगे तो हम अपने को कृत-कृत्य समझेंगे । ”
राजा विक्रमधन के यह वचन सुनकर मुनिराज ने सम्यक् ज्ञान के लाभार्थ, अपनी मन: शक्ति द्वारा दूर स्थित एक केवली मुनिराज से उसका तात्पर्य पूछा।
केवली मुनि ने वहीं से उन्हें नेमिनाथ भगवान के नव भवों का वृत्तान्त कह सुनाया। मनः पर्यव और अवधिज्ञान से वही सब बातें मुनिराज ने राजा को बतला दी। अन्त में उन्होंने कहा - "हे राजन् ! तुम्हारा यह पुत्र धनकुमार सब मिलाकर नव बार जन्म लेगा और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त करता जायगा। इसका नवाँ जन्म इसी क्षेत्र के यदुवंश में होगा और उस समय यह अरिष्टनेमि नामक बाईसवाँ तीर्थंकर होगा । "
मुनिराज के यह वचन सुनकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए और जैन-धर्म पर उनकी श्रद्धा दूनी हो गयी। इसके बाद मुनिराज को नमस्कार कर राजा विक्रमधन सपरिवार अपने राजमहल को लौट आये और मुनिराज भी वहाँ से विहार कर किसी दूसरे स्थान को चले गये । राजकुमार धन और धनवती पुनः अपने दिन पूर्ववत निर्गमन करने लगे ।