________________
196 * नल-दमयन्ती-चरित्र सेवा में उपस्थित हुए। उन सबने नल की अधीनता स्वीकार की और नल ने उनका आदर सत्कार कर उन्हें अनेक प्रकार से सम्मानित किया। इसके बाद नल ने निर्भय हो, हजारों वर्ष तक अर्धभरत पर राज्य किया।
अन्त में एक दिन दिव्यरूपधारी निषधदेव अपने पुत्र नल के पास आकर कहने लगे-“हे वत्स! इस भवारण्य में आत्मा का विवेक रूपी समस्त धन विषय रूपी चोर लूट रहे हैं। यदि तुम उसकी रक्षा न करोगे, तो तुम्हारा पुरुषार्थ फिर किस काम आयगा? मैंने तुमसे कहा था कि जब दीक्षा लेने का समय आयगा, तब मैं तुम्हें सूचित करूंगा। इसीलिए आज मैं तुम्हारे पास
आया हूँ। वह समय आ गया है। अब तुम्हें दीक्षा ग्रहण कर आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।
इतना कह निषधदेव अन्तर्धान हो गये। संयोगवश उसी समय जिनसेन नामक एक अवधिज्ञानी आचार्य का आगमन हुआ। उन्हें देख, नल और दमयन्ती उसी समय उनके पास गये और उन्हें वन्दन करने के बाद उनसे अपने' पुर्वजन्म का हाल पूछने लगे। इस पर जिनसेन ने कहा- "हे राजन् ! पूर्वजन्म में साधु को क्षीर दान देने से तुम्हें राज्य प्राप्त हआ है, किन्तु क्रोध के कारण तुमने बारह घड़ी के लिए मुनि को उनके संगियों से अलग कर दिया था, इसलिए तुम्हें बारह वर्ष का वियोग सहन करना पड़ा है।"
इधर नल को यह बात तो मालूम हो ही चुकी थी, कि उनके दीक्षा लेने का समय समीप आ गया है, इसलिए अब उन्होंने अपने पुष्कल नामक पुत्र को राज्य देकर आचार्य जिनसेन के निकट दीक्षा ले ली। दमयन्ती ने भी उनका अनुसरण किया। नल ने दीक्षा लेने के बाद दीर्घकाल तक साधना की, किन्तु विषयों पर विजय प्राप्त करना कोई सहज काम नहीं हैं। एक बार उन के मन में विकार उत्पन्न हो जाने के कारण उनका चित्त दमयन्ती की ओर चला गया। आचार्य को यह बात मालूम हो जाने पर उन्होंने नल का त्यागकर दिया।
इससे नल बड़े असमंजस में पड़ गये, किन्तु नल की यह अवस्था देखकर उसी समय उनके पिता ने देवलोक से आकर उनको ऐसा उपदेश दिया कि वह सदा के लिए उनके हृदय पट पर अंकित हो गया। उनके हृदय में