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श्री नेमिनाथ-चरित * 193
हो गया। इसकी अब जरूरत भी न थी, इसलिए उन्होंने उस बिल्वफल और पिटारी से वस्त्राभूषण निकालकर धारण कर लिये। उन्हें धारण करते ही वे कुब्ज मिटकर पुन: वही देवता स्वरूप नल दिखने लगे। पतिदेव को प्रकृत रूप में देखकर दमयन्ती के आनन्द का वारापार न रहा। वह प्रेम पूर्वक लता की भांति नल के गले से लिपट गयी। नल के नेत्रों में भी उस समय हर्ष के आंसू
आ गये। पति पत्नी का यह मिलन आज बारह वर्ष के बाद हुआ था, इसलिए वह इतना मधुर, इतना प्रेममय और इतना आनन्द पूर्ण था, कि उसका वर्णन करना मनुष्य की शक्ति से परे था।
पत्नी को मिलने भेटने के बाद राजा नल उस कमरे से बाहर निकले। बाहर राजा भीमरथ उनकी राह देखते हुए खड़े थे। कुब्ज के बदले कमरे से उनको निकलते। देखकर उनका हृदय मत्त मयूर की भांति थिरक उठा। उन्होंने दौड़कर नल को गले से लगा लिया। इसके बाद वे प्रेमपूर्वक उन्हें राजसभा में ले गये और वहां उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाकर, वे उनका कुशल समाचार पूछने लगे। नल के प्रकट होने का यह समाचार देखते ही देखते बिजली की भांति समूचे नगर में फैल गया। . ..राजा दधिपर्ण ने भी यह समाचार सुना। इसलिए वे उसी समय राजा भीमरथ की राज सभा में दौड़ आये और नल को प्रणाम कर कहने लगे—“हे नल भूपाल! आप तो मेरे स्वामी हैं। मैं आपका दास होने योग्य भी नहीं हूँ, फिर भी अज्ञानतावश मैंने आपको अपना आश्रित बनाकर रक्खा था। हे देव! मेरा यह अपराध क्षमा कीजिए। मैं इस दुर्व्यवहार के कारण बहुत ही लज्जित
· नल ने सिंहासन से उठकर दधिपर्ण को गले लगाते हुए कहा“राजन् ! आप यह क्या कहते हैं ? आपने मेरे साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया है। मैंने स्वेच्छा पूर्वक आपके यहां आश्रय ग्रहण किया था और मैं शपथ पूर्वक कह सकता हूं कि आपके यहाँ मुझे घर से भी बढ़कर आराम मिला है। आप अपना विनय दिखाने के लिए चाहे जो कहें, किन्तु मैं तो आपकी इस कृपा के लिए सदा चिरऋणी ही रहूंगा।"
इसी समय सार्थपति धनदेव बहुमूल्य भेंट लेकर राजा भीमरथ के दर्शन