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श्री नेमिनाथ - चरित 189
कुब्ज उसी समय दो मँझोले घोड़े और एक रथ ले आया। राजा तो चलने के लिए तैयार ही खड़े थे। उन्होंने एक सेवक, एक छत्रधर और दो चमर ढ़ोलनेवाले इन चार आदमियों को भी अपने साथ रथ में बैठा लिया। कुब्ज भी अपना बिल्वफल और रत्नपिटारी कमर में बांधे तैयार था। उसने सारथी का स्थान ग्रहण कर ज्योंही घोड़े की बागडोर अपने हाथ में ली, त्योंही वे पंखधारी अश्वों की भांति आकाश में उड़ने और हवा से बातें करने लगे । उसका यह चमत्कार देखकर दधिपर्ण ने अपने दातों तले अंगुली दबा ली।
रथ की गति बहुत तेज होने के कारण बैठनेवालों के शरीर में जोरों की हवा लगती थी। एक बार बड़ी जोर का झोंका लगने से राजा का उत्तरीय वस्त्र उड़कर नीचे गिर पड़ा। यह देखकर राजा ने कुब्ज से कहा - "जरा रथ को रोकिए, मैं अपना वस्त्र उठा लूं।”
कुब्ज ने हँसकर कहा- "राजन् ! यहां आप का वस्त्र कहां ? जिस स्थान में आप का वस्त्र गिरा, उस स्थान से हमलोग करीब पचीस योजन दूर निकल आये हैं । यह घोड़े मध्यम हैं । यदि उत्तम होते तो इतनी ही देर में हम लोग पचास योजनं दूर निकल गये होते । "
यह सुनकर राजा दधिपर्ण चुप हो गये। यहां से आगे बढ़ने पर उन्हें दूर से बिभीतक नामक एक वृक्ष दिखायी दिया। वह वृक्ष नीचे से ऊपर तक फलों से लदा हुआ था। राजा ने उसे देखकर कुब्ज से कहा - "मुझे एक ऐसी विद्या मालूम है, जिसके सहारे गणना किये बिना ही मैं यह बतला सकता हूं कि इस वृक्ष में कितने फल लगे हुए हैं । किन्तु लौटती बार मैं तुम्हें यह कौतुक • दिखाऊँगा । तुम समस्त फलों को तोड़कर गिन लेना, कि मेरा कहना ठीक है या नहीं !”
कुब्ज ने कहा- - " लौटती बार क्यों, इसी समय दिखाइये न ? आप समझते होंगे कि इस सारथी को फल तोड़ने में अधिक समय लग जायगा और शायद कुण्डिनपुर पहुँचने में देरी हो जायगी, पर मैं आप से बतला देना चाहता ..हूं, कि मैं इन समस्त फलों को एक ही मुट्ठी के प्रहार से गिरा सकता हूं। इसमें मुझे जरा भी समय न लगेगा । "
राजा ने कहा—“अच्छी बात है, तुम्हारी इच्छा हो तो इसी समय