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श्री नेमिनाथ-चरित * 181 और आभूषणों को धारण करोगे, त्योंही तुम्हारा यह कुरूप लोप हो जायगा और तुम अपने उसी देव समान असली रूप में आ जाओगे।" • पिता के यह वचन सुनकर नल को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने उनकी दी हुई दोनों वस्तुएं बड़े यत्न से अपने पास रख ली। इसके बाद उन्होंने उनसे पूछा- “पिताजी! आप इस समय देवयोनि में है, इसलिए आपकी सर्वत्र गति है। क्या आप बतला सकते हैं, कि आप की पुत्रवधु दमयन्ती इस समय
कहां है?"
देव तनधारी निषध ने कहा-“दमयन्ती इस समय कुण्डिनपुर के मार्ग में है। वह वहां सकुशल पहुँच जायगी। इसलिए उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। तुम भी जब जहां चाहे वहां जा सकते हो। मेरी समझ में तो तुम्हारा जंगल में भटकना बेकार है। तुम्हारी जहां जाने की इच्छा हो, वहां मैं तुम्हें क्षणमात्र में पहुंचा सकता हूं।"
नल ने कहा-“अच्छा, आप मुझे सुसुमारपुर पहुंचा दीजिए।" यह सुनकर निषध उसी समय नल को सुसुमारपुर में छोड़ आये और स्वयं देवलोक में चले गये। ., इधर नलकुमार सुसुमारपुर के बाहर नन्दन वन में पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने सिद्धायतन के समान एक चैत्य देखा। उसमें श्रीनेमिनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित थी। उसे देखते ही भक्ति भाव के कारण नल का शरीर रोमाञ्चित हो उंठा। उन्होंने बड़े प्रेम से भगवान की वन्दना की। इसके बाद वे नगर के दरवाजे के पास गये। वहां पर उन्होंने देखा कि एक मदोन्मत्त हाथी जंजीर से . मुक्त होकर चारों और घूम रहा है। वह जिस वृक्ष के पास जाता, उसी को सूंढ़ में लपेटकर मूली की भांति उखाड़ डालता। गजशाला के महावत इधर उधर दौड़ रहे थे, किन्तु उनसे कुछ करते धरते न बनता था। हाथी के भय से चारों
और भगदड़ मची हुई थी। ____ संयोग वश सुसुमारपुर के स्वामी राजा दधिपर्ण भी उस समय वहीं किले पर उपस्थित थे। उन्होंने वहीं से पुकार कर कहा कि- "इस हाथी को जो वश कर लेगा, उसे मैं मनवांच्छित वस्तु इनाम दूंगा। क्या यहां कोई ऐसा वीर नहीं है, जो इसे अधिकार में ला सके ?"