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10 * पहला और दूसरा भव गये, परन्तु बाद में उन्होंने उसकी प्रार्थना सहर्ष स्वीकार कर ली। दूत भी इससे प्रसन्न हो उठा। राजा विक्रमधन ने उसका सत्कार कर उसे सम्मानपूर्वक विदा किया।
इसके बाद उस दूत ने राजकुमार का पता लगाना आरम्भ किया। उस समय राजकुमार उद्यान में सैर करने गये थे। दूत भी शीघ्र ही वहाँ पहुँचा और द्वारपाल की आज्ञा प्राप्त कर उद्यान में उससे मिला। उसने पहले राजकुमार को प्रणाम कर उनसे अपने आगमन का कारण निवेदन किया, पश्चात् उन्हें वह पत्र दिया जो धनवती ने उनके नाम लिखा था। राजकुमार ने बड़ी उत्सुकता से उस पत्र को खोलकर पढ़ा। उसमें निम्नलिखित श्लोक लिखा था- ....
विशेषत श्री: शारदा, यौवनेनेव पद्मिनी।
परिम्लान-मुखी वाञ्छ-त्यादित्य-कर-पीडनम्॥ .. ____ अर्थात्-“शरद ऋतु के कारण विशेष शोभा प्राप्त पद्मिनी म्लान मुखी . होकर सूर्य का कर पीड़न चाहती है। यानि नवयौवना पद्मिनी इस समय पति का कर-पीड़न चाहती है-मिलना चाहती है।" ... ... इससे राजकुमार तुरन्त ही समझ गये कि धनवती मुझ पर आसक्त हो रही है। उन्होंने भी उस श्लोक के उत्तर में एक श्लोक लिख दिया। साथ ही अपना रत्नहार निकाल कर उस राजदूत को देते हुए कहा-“मेरा यह प्रेमोपहार और पत्र राजकुमारी को दे देना। इससे वे सब-कुछ समझ जायगी।"
इस प्रकार सिंह राजा का सब काम निपटाकर वह दूत कुसुमपुर लौट आया। राजा ने जब यह समाचार सुना कि विक्रमधन ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है, तब उनके आनन्द का वारापार न रहा। उन्होंने दूत को पुरस्कार देकर विदा किया। इसके बाद वह दूत धनवती के पास गया और उसे प्रणाम कर वह हार तथा पत्र उसके हाथ में रखा। पत्र में निम्नलिखित श्लोक लिखा था
यत् प्रमोदयत् सूर्यः, पद्मिनी कर-पीडनात्।
सोऽर्थः स्वभाव-संसिद्धो, नहि याचामपेक्षते॥ अर्थात-"पद्मिनी का मनोरंजन करना यह सूर्य के लिए स्वभाव सिद्ध बात है। इसके लिए याचना करने की आवश्यकता नहीं।"