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श्री नेमिनाथ-चरित * 177 इसलिए मैं आपके दर्शन करने आया हूं। आप की सदा जय हो!" - इतना कह वह देव सात क्रोड़ सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा कर अन्तर्धान हो गया। जैन धर्म का यह साक्षात् फल देखकर राजा ऋतुपर्ण भी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया। ___दो एक दिन बार हरिमित्र ने राजा ऋतुपर्ण से कहा-“हे राजन् ! दमयन्ती को अब अपने पिता के घर जाने की आज्ञा दीजिए। उसके माता पिता उसके वियोग से बहुत दु:खित हो रहे है।"
- राजा और रानी ने इसके लिए सहर्ष अनुमति दे दी। उनकी रक्षा के लिए उन्होंने एक छोटी सी सेना भी उनके साथ कर दी। यथासमय दमयन्ती सबसे मिल भेंट कर, एक रथ में बैठ, अपने पितृ गृह के लिए रवाना हुई।
हरिमित्र ने कुंडिनपुर के समीप पहुंचने के पहले ही दमयन्ती के आगमन का समाचार राजा भीमरथ को भेज दिया था, इसलिए राजा भीमरथ बड़े ही प्रेम से अपनी पुत्री को मिलने के लिए सामने आ पहुँचे। पिता को देखकर दमयन्ती रथ से उतर पड़ी और पैरों से चलती हुई पिता की और अग्रसर हुई। उनके समीप पहुँचते ही वह आनन्द पूर्वक विकसित नेत्रों से उनके चरणों पर गिर पड़ी। पिता और पुत्री का यह मिलन वास्तव में परम दर्शनीय था। दोनों के होठों पर मुस्कुराहट और नेत्रों में अश्रु थे। राजा भीमरथ का वात्सल्य भाव देखते ही बनता था। वे वारंवार दमयन्ती की पीठ पर हाथ फेरकर उसे स्नेह और करुणाभरी दृष्टि से देखते थे। उनका आनन्द आज उनके हृदय में न
.. समाता था।
. पुत्री के आगमन का समाचार सुनकर रानी पुष्पवती भी वहां आ पहुँची। उनका समूचा शरीर स्नेह के कारण रोमाञ्चित हो रहा था। जिस प्रकार गंगा यमुना का संगम होता है, उसी प्रकार माता ने पुत्री को गले से लगा लिया। स्नेहमयी माता के गले लगने पर दमयन्ती का दु:ख सागर मानो उमड़ पड़ा
और उसे रुलाई आ गयी। जब उसने जी भरकर रो लिया, तब उसका हृदय भार कुछ हल्का हुआ।
इसके बाद दमयन्ती के माता पिता बड़े प्रेम से उसे राजमहल में ले गये। वहां पर दमयन्ती ने द्यूत क्रीड़ा से लेकर अब तक की मुसीबत का सारा हाल