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176 * नल-दमयन्ती-चरित्र है। इसके रहने पर सूर्य, चन्द्र, दीपक या रत्न किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं पड़ती। इसका प्रकाश बहुत दूर तक फैल जाता है और उस प्रकाश में दिन की . तरह सब चीजें बहुत साफ दिखायी देती हैं।"
राजा ने आश्चर्यपूर्वक फिर पूछा-"क्या दमयन्ती मिल गयी?उसका पता मिल गया? वह कहां थी? उसका पता किस प्रकार मिला?"
रानी चन्द्रयशा ने राजा को सारा हाल कह सुनाया। सुनकर उन्हें बड़ा ही। आश्चर्य हुआ। वे भी इस बात से बहुत दुःखित हुए, कि दमयन्ती इतने दिनों से. उनके महल में, उन्हीं की छत्र छाया में रहती थी, फिर भी वह पहचानी न जा सकी। इसके बाद उन्होंने दमयन्ती को अपने पास बैठाकर बड़े प्रेम से उसकी विपत्ति का हाल पूछा। दमयन्ती से सजल नेत्रों से अपनी करुण कथा उनको भी कह सुनायी। राजा ऋतुपर्ण उसे सुनकर बहुत दु:खी हुए। उन्होंने अपने . रुमाल से दमयन्ती के अश्रु पोंछकर नाना प्रकार से उसे आश्वासन दिया। , बेचारी दमयन्ती अपने हृदय की वेदना को हृदय में ही छिपाकर फिर किसी तरह शान्त हो गयी। - इसी समय आकाश से एक देव उतर कर राजा ऋतुपर्ण और दमयन्ती के सामने आकर उपस्थित हुआ, उसने हाथ जोड़कर. दमयन्ती से कहा- "हे माता! मैं वही पिंगल चोर हूं, जिसे आपने उन दो साधुओं द्वारा दीक्षा दिलायी थी। दीक्षा लेने के बाद मैं विहार करता हुआ तापसपुर गया और वहां के श्मशान में कायोत्सर्ग कर मैं अपने जीवन को शेष समय व्यतीत करने लगा। संयोगशवश उसी समय एक चिता से आग उछल कर आस पास के वृक्षों में लग गयी और उसने देखते ही देखते दावानल का रूप धारण कर लिया। मैं भी उस दावानल में जल गया, परन्तु मृत्यु के समय मैं धर्मध्यान में लीन था, इसलिए मैं देवलोक में देव हुआ और मेरा नाम पिंगल पड़ा। देवत्व प्राप्त होने के बाद मुझे अवधिज्ञान से मालूम हुआ, कि आपने मेरी प्राण रक्षाकर मुझे जो प्रवज्या दिलायी थी, उसीके प्रभाव से मैं सुरसुख का भोक्ता हुआ हूं। हे स्वामिनी! यदि मुझे पापी समझकर आपने उस समय मेरी उपेक्षा की होती, तो मुझे धर्म की प्राप्ति कदापि न होती और मैं अवश्य नरक का अधिकारी होता। हे देवी! आपके ही प्रसाद से मुझे यह देवत्व और देव सम्पत्ति प्राप्त हुई है,