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श्री नेमिनाथ-चरित * 175 माता के यहां क्यों न छोड़ गये? ऐसी महासती भार्या को जंगल में अकेली छोड़ देना नल के लिए बड़े ही कलंक की बात है। इस कार्य द्वारा उन्होंने अपने कुल को भी कलंकित बना दिया है। हे वत्से ! तुम मेरा अपराध क्षमा करो। मैंने तुम्हें पहचानने में ऐसी बड़ी भूल की है, जिसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। खैर, होनहार होकर ही रहता है। तुम्हारे भाग्य में यह दुःख बदा था, इसलिए तुम्हें भोग करना पड़ा।"
__ इस प्रकार नाना प्रकार की बातें कहकर चन्द्रयशा ने दमयन्ती को सान्त्वना दी। इतने ही में उसे स्मरण आ गया कि दमयन्ती के ललाट पर तो सूर्य के समान परम तेजस्वी एक तिलक था, वह क्यों दिखायी नहीं देता? उसने दमयन्ती के ललाट की ओर देखा। दमयन्ती जान बुझकर उसकी सफाई न करती थी इसलिए वह मैला कुचेला हो रहा था। रानी चन्द्रयशा ने हाथ में जल लेकर उसे भली भांति धो दिया। धोते ही वह तिलक इस प्रकार चमक उठा, जिस प्रकार बादल छंट जाने पर वर्षा के दिनों में सूर्य चमक उठता है।
इसके बाद रानी चन्द्रयशा बड़े आदर के साथ उसे दानशाला से अपने राजमहल में ले आयी। वहां उसने स्वयं अपने हाथ से स्नान करा कर मनोहर श्वेतवस्त्र उसे पहनने को दिये। मौसी का यह प्रेम और आदर भाव देखकर दमयन्ती के होठों पर भी आज हँसी दिखायी देने लगी। रानी चन्द्रयशा . दमयन्ती को सजाधजा कर राजा ऋतुपर्ण के पास ले गयी। उस समय राजा
एक कमरे में बैठे हुए थे। रात हो चुकी थी और चारों ओर घोर अन्धकार फैला हुआ था कमरे में एक बत्ती जल रही थी, जो काफी तेज थी, लेकिन फिर भी वह उस स्थान के अन्धकार को पूर्ण रूप से दूर करने में समर्थ न थी। सनी चन्द्रयशा ने कमरे में पैर रखते ही वह बत्ती बुझा दी। साथ ही उसने दमयन्ती के ललाट का वस्त्र हटाकर उसका वह तिलक खोल दिया। तिलक खोलते ही वह कमरा जग मगा उठा।
राजा ने चकित होकर पूछा- "प्रिये! तुमने दीपक तो यहां आते ही बुझा दिया था, अब यह इतना प्रकाश कहां से आ रहा है? मुझे तो ऐसा मालूम होता है, मानो यह रात नहीं बल्कि दिन है।"
चन्द्रयशा ने कहा-“नाथ! यह दमयन्ती के भाल तिलक का प्रताप