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174 * नल-दमयन्ती-चरित्र कम सौभाग्य की बात नहीं है। अब तुम्हारे माता पिता और स्वजन स्नेहियों की चिन्ता दूर हो जायगी।"
___ इतना कह, हरिमित्र ने दमयन्ती को अपने आगमन का सब हाल कह सुनाया। इसके बाद वह रानी चन्द्रयशा के पास दौड़ गया और उन्हें यह शुभ संवाद कह सुनाया। दमयन्ती उनकी दानाशाला में रहती थी, वे उसे रोज देखती थी, फिर भी उसे पहचानते हुए भी उन्होंने उसे न पहचाना, इसके लिए उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे उसी समय दानशाला में जा पहुंची। वहां पर उन्होंने दमयन्ती को गले से लगा लिया। दमयन्ती भी उन्हें जी खोलकर मिली, क्योंकि उसे यह बात आज अपने जीवन में पहले ही पहल मालूम हुई, कि . चन्द्रयशा उसकी सगी मौसी है।
अपना प्रकृत परिचय न देकर छद्मावेश में रहने के कारण दमयन्ती को चन्द्रयशा ने सख्त उलाहना दिया। उसने कहा-“हे वत्से! मुझे वारंवार धिक्कार है कि मैं तुम्हें पहचान न सकी। मुझे भ्रम तो. अनेक बार हआ, परन्तु मैंने निराकरण एक बार भी न किया। इसके लिए आज मुझे बड़ा ही पश्चात्ताप हो रहा है। लेकिन इसके साथ ही मैं तुम्हें भी भला बुरा कहे बिना नहीं रह सकती। तुमने छिपे वेश में रहकर मुझे धोखा क्यों दिया? तुमने अपना असली परिचय मुझे क्यों न दिया? दैवयोग से तुम्हारे शिर यह दुःख आ पड़ा तो इसमें लज्जा की कौनसी बात थी? लजा भी कहां? मातृकुल में! माता पिता के सामने?"
इस प्रकार दमयन्ती को उलाहना देने के बाद रानी चन्द्रयशा उसकी दुरावस्था के लिए रोने कलपने लगी। शान्त होने पर उन्होंने दमयन्ती से पूछा- "हे पुत्री ! तुन ने नल को त्याग दिया था या नल ने तुमको त्याग दिया था? मैं समझती हूँ कि उन्होंने ही तुम्हें त्याग दिया होगा। तुम सो सती हो, इसलिए ऐसा अनुचित काम तुम कर भी कैसे सकती हो? अब तक मैंने कहीं भी ऐसा नहीं सुना कि किसी पतिव्रता स्त्री ने संकटावस्था में पड़े हुए अपने पति को त्याग दिया हो। जिस दिन इस देश की सती साध्वी स्त्रियाँ ऐसा करने लगेंगी, उस दिन यह पृथ्वी अवश्य रसातल को चली जायगी। परन्तु नल ने भी तुम्हें त्यागकर बड़ा ही अनुचित कार्य किया है। वे तुम्हें मेरे यहां या तुम्हारी