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श्री नेमिनाथ-चरित * 173 बातचीत हो रही थी, उसी समय वहां रानी चन्द्रयशा जा पहुँची। उन्हें जब यह मालूम हुआ, कि यह आदमी राजा भीमरथ के यहां से आया है, तब उन्होंने अपनी बहिन पुष्पदन्ती आदि का कुशल समाचार पूछा। उत्तर में हरिमित्र ने कहा-“हे देवि! रानी पुष्पदन्ती और राजा भीमरथ तो परम प्रसन्न हैं, किन्तु नल दमयन्ती का समाचार बहुत ही शोचनीय है।" .
चन्द्रयशा ने कहा- "हे पुरोहित! तुम यह क्या कह रहे हो? नल और दमयन्ती को क्या हो गया है ? उनका जो कुछ समाचार हो, शीघ्र ही कहो।"
- हरिमित्र ने द्यूत से लेकर नल के वन प्रवास तक का सारा हाल उन्हें कह सुनाया। यह सुनकर रानी को अत्यन्त दु:ख हुआ और वे उस दु:ख के कारण विलाप करने लगी। हरिमित्र उनको उसी अवस्था में छोड़कर दानशाला की
ओर चला गया। उसे भूख भी बड़े जोरों की लगी हुई थी, इसलिए उसने सोचा कि वहीं पर भोजन का भी ठिकाना हो जायगा। दानशाला का द्वार तो सबके लिए खुला ही रहता था। इसलिए हरिमित्र ने वहां पर ज्योंही भोजन की इच्छा प्रकट की, त्योंही शुद्ध और ताजे भोजन की थाली उसके सामने आ गयी। हरिमित्र उसके द्वारा अपनी क्षुधाग्नि शान्त करने लगा। • भोजन करते समय अतिथियों के पास जाना और उनसे पूछताछ कर उन्हें किसी और वस्तु की आवश्यकता हो,तो वह उन्हें दिला देना, यह दमयन्ती का एक नियम सा था। इसी नियमानुसार वह हरिमित्र के पास भी • पहँची और उससे पूछने लगी कि भाई! तुम्हें किसी वस्तु की आवश्यकता तो
नहीं है?
- हरिमित्र को किसी खाद्यपदार्थ की आवश्यकता न थी, इसलिए उसने उसके लिए तो इन्कार कर दिया, परन्तु इसके साथ ही उसकी दृष्टि दमयन्ती पर जा पड़ी, जिससे उसको इतना आनन्द हुआ, मानो उसे कुबेर का भण्डार मिल गया हो। वह दमयन्ती को भली भांति पहचानता था। इसलिए उसे पहचानने में जरा भी दिक्कत न हुई, फिर भी उसने उसे दो तीन बार देखकर भली भांति निश्चय कर लिया। जब उसे मालूम हो गया, कि यह दमयन्ती है, तब उसने पुलकित हृदय से दमयन्ती को प्रणाम करके कहा-“हे देवि! तुम्हारी यह क्या अवस्था हो रही है! खैर, तुम्हारा पता लग गया, यह भी