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श्री नेमिनाथ-चरित * 171 — पश्चात् मैं घूमता घामता यहां आ पहुंचा। यहां पर राजा ऋतुपर्ण ने मुझे नौकर रख लिया। इससे मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ, खासकर इस विचार से कि अब मुझे फिर माल मारने का मौका मिलेगा। चोर का ध्यान सदा चोरी में ही रहता है, इसलिए किसी भी कार्य से यदि मैं राज मन्दिर में इधर उधर जाता, तो वहां रक्खी हुई चीजों पर सबसे पहले नजर डालता। एक दिन मैंने चन्द्रवती की रत्नपिटारी देख ली। उसे देखते ही मेरा चित्त चलायमान हो गया और मैं उसी क्षण उसे चुरा लाया।
परन्तु चोर की हिम्मत कितनी ? मैं ज्यों ही डरते डरते वहां से भागने की तैयारी करने लगा, त्योंही राजमहल के चतुर पहरेदारों को मुझ पर सन्देह हो गया और उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया। तलाशी लेने पर मेरे पास से जब वह रत्नपिटारी निकली; तब उन्होंने मुझे राजा के सामने उपस्थित किया और उन्होंने चोरी के अपराध में मुझे मृत्युदण्ड दे दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ वह आपको मालूम ही है। यदि आप ने मुझे न बचाया होता तो, हे महासती। उस दिन मैं कुत्ते की मौत मारा गया होता।"
चोर की इस आत्म कथा से दमयन्ती को जब यह मालूम हुआ, कि वह वसन्त सार्थवाह का नौकर था और तापसपुर में रहता था, तब उन्होंने बड़े प्रेम से वसन्त का कुशल समाचार पूछा। उत्तर में उस चोर ने कहा—“हे देवी! .. तापसपुर से आपके चले आने पर विन्ध्याचल के वियोगी हाथी की भांति वसन्त सार्थवाह ने अन्न त्याग दिया और सात दिन तक उपवास किया। इसके बाद यशोभद्रसूरि का उपदेश श्रवण कर उसने आठवें दिन फिर अन्न ग्रहण किया। ... . इसके कुछ दिन बाद वह अनेक बहुमूल्य चीजें लेकर राजा कुबेर के दर्शन करने गया। वे उसकी भेंट देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे न केवल राजसभा में ही सम्मानित किया, बल्कि छत्र और चमर सहित उसे तापसपुर का राज्य देकर उन्होंने उसे अपने सामन्तों में शामिल कर लिया। उन्होंने उसका नाम भी बदलकर वसन्त श्रीशेखर रख दिया। इस प्रकार राज समान प्राप्त कर वह विजय भेरी बजाता हुआ तापसपुर लौट आया। उस समय से वह वहीं पर रहता है और प्रेमपूर्वक प्रजा का पालन करता है।"