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170 * नल-दमयन्ती-चरित्र न हुई थी। वे सपरिवार दमयन्ती के पास गये और उससे कहने लगे—“हे पुत्री! तुमने यह क्या किया? दुष्टों का दमन और शिष्टों की रक्षा करना राजा का एकान्त कर्त्तव्य है। उपद्रवियों से रक्षा करने के लिए ही राजा अपनी प्रजा से कर (टेक्स) लेता है। अपराधियों को समुचित दण्ड न देने उनका पाप राजा के ही सिर पड़ता है। इस चोर ने राज कन्या की रत्न पिटारी चुरा ली है, इसे दण्ड न देने से दूसरे चोरों का भी हौंसला बढ़ जायगा और फिर इस प्रकार के अपराधियों को दण्ड देना कठिन हो पड़ेगा।" ___दमयन्ती ने कहा—“पिताजी! इसमें कोई सन्देह नहीं, कि अपराधियों को दण्ड अवश्य देना चाहिए, परन्तु यदि मेरे सामने ही इसका वध किया जायगा, तो मुझ श्राविका का दया धर्म किस काम आयगा? इसलिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करती हूं कि यह मेरी शरण में आया है। इसका चीत्कार, इसकी करुण प्रार्थना सुनकर मैंने इसे अभयदान दिया है। आप भी इसे अभयदान देने की कृपा करें। मैं आपका यह उपकार अपने ऊपर ही समझूगी और इसके लिए आपकी चिरऋणी रहूंगी।" ..
दमयन्ती का अत्यन्त आग्रह देखकर राजा ऋतुपर्ण ने उस चोर का अपराध क्षमा कर दिया। राज कर्मचारियों के हाथ से मुक्ति पाते ही वह चोर दमयन्ती के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा-आपने आज मुझे जीवन दान दिया है, इसलिए आज से मैं आपको अपनी माता मानूंगा।" . इतना कह, दमयन्ती का आशीर्वाद ग्रहण कर उस समय तो वह चोर वहां से चला गया, किन्तु इसके बाद से वह रोज एक बार दमयन्ती के पास आने और उनको प्रणाम करने लगा। एक दिन दमयन्ती ने उससे पूछा-"तुम कौन हो और कहां रहते हो? तुमने चोरी का यह पापकर्म क्यों किया था?" ___उसने कहा-हे देवी! "तापसपुर में वसन्त नामक एक धनीमानी सार्थवाह रहते थे। उन्हीं का मैं पिंगल नामक नौकर था। मैं दुर्व्यसनी था, इसलिए उन्हीं के यहां सेंध लगाकर मैंने उनके भंडार से थोड़ा बहुमूल्य माल चुरा लिया। वह माल लेकर मैं वहाँ से भागा। मैं समझता था कि इस माल को लिए किसी सुरक्षित स्थान में पहुँच जाऊंगा और थोड़े दिन मौज करूंगा, किन्तु दुर्भाग्यवश मार्ग में डाकुओं ने मुझे लूट लिया। इसलिए मैं फिर.जैसा का तैसा हो गया।