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श्री नेमिनाथ-चरित * 169 रानी चन्द्रयशा ने नगर के बाहर एक दानशाला बनवा रक्खी थी। वहां पर वह रोज सुबह कुछ देर बैठकर दीन और दुःखियों को दान दिया करती थी। यह देख, दमयन्ती ने रानी से कहा-“माताजी! यदि आप कहें तो दानशाला में बैठकर मैं भी दीन दुःखियों को दान दिया करूं। सम्भव है कि मेरे पतिदेव कभी घूमते घामते वहां आ जायें या वहां आने वाले मुसाफिरों से किसी प्रकार उनका पता मिल जाय!"
रानी ने दमयन्ती की यह प्रार्थना सहर्ष स्वीकार कर ली, अत: दूसरे ही दिन से दमयन्ती वहां बैठकर दान देने लगी। वहां पर जो जो याचक या मुसाफिर आता, उसको नल का रूप आदि बतलाकर दमयन्ती उससे उनका पता पूछती। धीरे धीरे यही उसकी दिनचार्या हो गयी। इस कार्य में उसे आनन्द भी आता था और उसका दिन भी आसानी से कट जाता था।
एक दिन दमयन्ती दानशाला में बैठी हुई थी। इतने ही में राजकर्मचारी एक बन्दी को लेकर उधर से आ निकले, वे उसे वधस्थान की ओर लिये जा रहे थे। दमयन्ती ने उन राज कर्मचारियों से उसके अपराध के सम्बन्ध में पूछताछ की, तो उन्होंने बतलाया कि यह एक चोर है। इसने चन्द्रवती देवी की रत्नपिटारी चुरा ली है, इसलिए इसे मृत्युदंड दिया गया है।" __ मृत्युदण्ड का नाम सुनते ही दमयन्ती को उस चोर पर दया आ गयी। इसलिए उसने करुणापूर्ण दृष्टि से उस चोर की ओर देखा। देखते ही चोर ने हाथ जोड़कर कहा-“हे देवी! मुझ पर आप की दृष्टि पड़ने पर भी क्या मुझे मृत्युदण्ड ही मिलेगा? क्या आप मुझे अपना शरणागत मानकर मेरी रक्षा न करेंगी?' .... .
चोर के यह वचन सुनकर दमयन्ती का हृदय और भी द्रवित हो उठा उसने उसे अभयदान देकर कहा-“यदि मैं वास्तव में सती होऊँ, तो इस बन्दी के समस्त बन्धन छिन्न भिन्न हो जायें।"
इतना कह दमयन्ती ने हाथ में जल लेकर उस पर तीन बार छिड़क दिया। छिड़कते ही उसके सब बन्धन टूट गये। इससे राजकर्मचारियों में बड़ा ही तहलका मच गया। उन्होंने तुरन्त राजा ऋतुपर्ण को इसकी खबर दी। उसे इससे बहुत ही आश्चर्य हुआ, क्योंकि ऐसी घटना इसके पहले कभी भी घटित