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168 * नल-दमयन्ती-चरित्र
इस प्रकार यह आत्मीयता अज्ञात होने पर भी, चन्द्रयशा ने जब दमयन्ती को देखा, तो उसके हृदय में वात्सल्य भाव उमड़ आया। दमयन्ती की भी यही अवस्था हुई। उन दोनों का हृदय उसी अज्ञात सम्बन्ध के कारण लोह चुम्बक की भांति एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगा। चन्द्रयशा ने दमयन्ती को गाढ़ अलिङ्गन कर उसे गले से लगा लिया। रानी का यह माता के समान प्रेम देखकर दमयन्ती के नेत्रों से भी अश्रुधारा बह निकली। वह दुःख और प्रेम के कारण रानी के पैरों पर गिर पड़ी।
रानी ने उसे उठाकर मधुर वचनों द्वारा सान्त्वना दी। जब वह शान्त हुई, तब रानी ने उसका परिचय पूछा। दमयन्ती ने पूर्व की भांति अपना असली परिचय न देकर जो बातें सार्थवाह से कहीं थी, वही बातें रानी से भी कह दी। उन्हें सुनकर रानी ने समवेदना प्रकट करते हुए कहा-“हे कल्याणी! तुम्हें यहां पर किसी प्रकार का कष्ट न होने पायगा। जिस प्रकार मेरी पुत्री चन्द्रवती रहती है, उसी प्रकार तुम भी रहो और आनन्द करो।"
दमयन्ती ऐश्वर्य या सुख की भूखी तो थीं नहीं, किन्तु उसे किसी निरापद स्थान या आश्रय की आवश्यकता जरूर थी। इसलिए रानी के उपरोक्त वचन सुनकर उसे परम सन्तोष हुआ और वह बड़ी सादगी के साथ वहां रहती हुई अपने दिन व्यतीत करने लगी।
रानी चन्द्रयशा जब जब इस गुप्तवेशवाली दमयन्ती को देखती, तब तब उसे प्रकृत दमयन्ती की याद आ जाती थी। वह दमयन्ती के रूप से उसके रूप की तुलना करती, तो उसे उन दोनों में बड़ी समानता दिखायी देती। एक दिन उसने अपनी पुत्री चन्द्रवती से कहा-“तुम्हारी यह बहिन ठीक मेरी दमयन्ती के समान है। इसे देखकर मुझे सन्देह हो जाता है कि यह वही तो नहीं है? परन्तु यह केवल सन्देह ही है। उसकी न तो ऐसी अवस्था हो ही सकती है, न वह यहां आ ही सकती है। वह तो हमारे स्वामी राजा नल की पटरानी है और यहां से एक सौ चौवालिस योजन की दूरी पर कोशला नगरी में रहती है!" . खैर, रानी ने इसे असम्भव मानकर दमयन्ती के निकट कभी इसकी चर्चा न की। फलत: उन दोनों का यह सम्बन्ध प्रकट न हो सका और दमयन्ती उसी तरह अपने दिन बिताती रही।