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श्री नेमिनाथ-चरित 166
उसे सुनकर दमयन्ती तुरन्त उठ बैठी । उस ने सार्थवाह से कहा"नवकार मन्त्र का पाठ करने वाला यह मनुष्य मेरा सहधर्मी है। इसलिए आपकी आज्ञा से मैं उसे देखना चाहती हूं।"
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सार्थवाह ने इसमें कोई आपत्ति न की बल्कि वह स्वयं पिता की भांति उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिए उसे उस सहधर्मी के पास ले गया । दमयन्ती
वहां जाकर देखा कि वह साक्षात् शरीरधारी श्रावक की भांति अपने तम्बू में बैठा हैं और एक पटपर खिंचे हुए आर्हत बिम्ब की वन्दना कर रहा है।
तभी उस बिम्ब को वन्दन कर वहीं पर बैठ गयी। उस परम श्रावक को देखकर उसका रोम रोम पुलकित हो उठा था। जब तक वह चैत्यवन्दन करता रहा, तब तक दमयन्ती चुपचाप बैठी रही । चैत्य वन्दन पूर्ण हो जाने पर उसने प्रेमपूर्वक पूछा – “हे बन्धो ! यह किस जिनेश्वर का बिम्ब है ??”
श्रावक ने कहा - " हे धर्मशीला । यह बिम्ब भविष्य में होने वाले उन्नसीवें तीर्थकर श्रीमल्लिनाथ का है। मैं भावी तीर्थकर का यह बिम्ब क्यों पूजता हूं, यह तुम्हारे हृदय में उठना स्वाभाविक है । हे कल्याणी तुम्हारे कल्याण के लिए मैं स्वयं तुम्हें यह रहस्य बतलाता हूं। ध्यान से सुनो- " मैं काञ्चीनगरी का एक वणिक हूं। एक बार वहां पर ज्ञानवान् धर्मगुप्त नामक मुनि का आगमन हुआ। उस समय मैं उनकी सेवा में उपस्थित हुआ, और उन्हें वन्दन करने के बाद मैंने पूछा – “हे भगवान ! मेरी मुक्ति किस तीर्थकर के तीर्थ में होगी ?"
मुनिराज ने मेरे इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा - "तुम देवलोक से च्युत होकर मल्लिनाथ के तीर्थ में मिथिला नगरी में प्रसन्नचन्द्र नामक राजा होंगे। उन्नीसवें तीर्थकर श्रीमल्लिनाथ का दर्शन प्राप्त होने पर तुम्हें केवलज्ञान उत्पन्न होगा और उसी समय तुम मोक्ष के अधिकारी होंगे ।"
धर्म ! उसी समय से मैं श्रीमल्लिनाथ भगवान का बिम्ब पट में अंकित भक्ति पूर्वक उसका पूजन करता हूं। यही मेरी इस पूजा का रहस्य है । हे पुण्यवती ! मुझे अपना धर्म बन्धु मानकर क्या तुम भी अब अपना परिचय देने कृपा
की
करोगी?"
उसका यह प्रश्न सुनकर दमयन्ती ने अपनी आंखें नीचे को झुका
ली ।