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165 * नल-दमयन्ती-चरित्र उसने अपने पतिवियोगदि का जो हाल धनदेव को बतलाया था, वही हाल धनदेव ने उस श्रावक को कह सुनाया। उसे सुनकर उसकी आंखों में आंसू आ गये। उसने दमयन्ती को आश्वासन देते हुए कहा-“हे भद्रे! तुम शोक मत करो। यह दुःख कर्मोदय के ही कारण तुम पर आ पड़ा है। अब तुम इस सार्थवाह को अपना पिता और मुझे अपना भाई समझो। हम तुम्हारे सुख के लिए यथासाध्य चेष्टा करेंगे।” अस्तु। ___थोड़े दिनों के बाद वह सार्थ अचलपुर जा पहुंचा। वहां पर दमयन्ती ने रह जाने की इच्छा प्रकट की, इसलिए उसे वहीं छोड़कर सार्थवाह अन्यत्र चला गया।
इधर दमयन्ती ने नगर में जाने का विचार किया, किन्तु उसे तृषा लगी हुई थी, इसलिए उसने सोचा कि पहले कहीं जल पान कर लेना चाहिए। नगर के बाहर द्वार के पास ही एक बावड़ी बनी हुई थी। उसमें नगर की अनेक पनिहारियें पानी भर रही थी। सीढ़ियों द्वारा उसी में उतर कर दमयन्ती ने अपनी तृषा शान्त की। पानी पीने के बाद ज्योंही वह उससे बाहर निकलने लगी, त्यों ही उसका बाया पैरं एक गोह ने पकड़ लिया। इससे दमयन्ती घबड़ा गयी। उसने समझा कि अब यही जीवन का अन्त आ जायगा। फिर भी उसने धैर्य पूर्वक तीन बार नवकार का पाठ किया। यही उस निर्बल का बल था। उसके प्रभाव से गोह से दमयन्ती का पैर तुरन्त छोड़ दिया। दमयन्ती मन ही मन भगवान को धन्यवाद देती हुई, हाथ पैर और मुँह धोकर धीरे धीरे राजहंसी की भांति उस बावड़ी से बाहर निकल आयी।
बावड़ी से बाहर निकलने पर दमयन्ती को कुछ थकावट मालूम हुई, इसलिए वह वहीं पर एक वृक्ष के नीचे लेटकर विश्राम करने लगी। इस स्थान से नगर की उच्च अट्टालिकाएं स्पष्ट दिखायी देती थी और उनका दृश्य बहुत ही मनोरम प्रतीत होता था। दमयन्ती उन्हीं की ओर देखती हुई अपने भूत भविष्य पर विचार करने लगी।
इस अचलपुर के राजा का नाम ऋतुपर्ण और रानी का नाम चन्द्रयशा था। जिस समय दमयन्ती उस वृक्ष के नीचे लेटी हुई थी, उसी समय राजमन्दिर की कई दासियां उस बावड़ी पर जल भरने आयी। जिस प्रकार राख