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164 * नल-दमयन्ती-चरित्र तुम्हें उसका रास्ता मालूम हो, तो मुझे उस रास्ते तक पहुंचा देने की कृपा करो?" __आदमी ने कहा-“जिस और सूर्यास्त होता है, उस और सीधी चली जाने पर तुम तापसपुर पहुंच जाओगी। वहां का रास्ता हमें अवश्य मालूम है, किन्तु समयाभाव के कारण हम लोग तुम को वहां तक पहुंचाने नहीं जा सकते। हमारा सार्थ यहां पास ही में टिका हुआ है। यदि तुम हमारे साथ वहां चलो, तो हम लोग तुम्हें किसी नगर में पहुंचा सकते हैं।
___ दमयन्ती ने देखा कि इधर उधर भटकने की अपेक्षा उनके साथ किसी नगर को पहुँच जाना अच्छा है, इसलिए वह उनके साथ हो गयी। पड़ाव में पहुंचने पर सार्थवाह धनदेव उस के पास दौड़ आया, उसने पूछा- “हे भद्रे ! तुम कौन हो और यहां पर क्यों आयी हो?"
दमयन्ती ने अपरिचित मनुष्यों को अपना प्रकृत परिचय देना उचित न समझा। इसलिए उसने कहा-“हे सार्थपति! मैं एक वणिक की पुत्री हैं। मैं अपने पति के साथ अपने मायके जा रही थी। एक रात को जब मैं सो गयी, तब न जाने क्या सोचकर मेरा पति मुझे छोड़कर चला गया। मैं उसीको खोजती हुई, चारों ओर भटक रही थी। इतने ही मैं तुम्हारे आदमियों से मेरी भेट हो गयी और वे मुझे यहां पर ले आये। हे महाभाग ! अब तुम मुझे किसी नगर में पहुँचा दोगे तो बड़ी कृपा होगी।"
सार्थपति ने कहा-“मैं अचलपुर की ओर जा रहा हूं। तुम भी मेरे साथ वहां चल सकती हो। मेरे साथ चलने से तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पायगा। मैं तुम्हें अपनी कन्या समझकर तुम्हारे आराम का ख्याल रक्खूगा।"
दमयन्ती अचलपुर जाने के लिए राजी हो गयी, इसलिए सार्थवाह ने उसके लिए एक गाड़ी का प्रबन्ध कर दिया। दमयन्ती उसी मैं बैठकर यात्रा करने लगी। __एक दिन किसी पहाड़ की तराई में, एक सुन्दर झरने के पास सार्थवाह ने पड़ाव डाला। रात में जिस समय दमयन्ती सोने की तैयारी कर रही थी, उस समय उसने सार्थ के किसी मनुष्य को नमस्कार महामन्त्र का पाठ करते सुना।