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श्री नेमिनाथ-चरित * 163 हाथ से निकल कर नहीं जा सकती।
दमयन्ती इससे बड़े संकट में पड़ गयी। उसने इष्टदेव के स्मरण कर कहा-“यदि मैंने नल के सिवा स्वप्न में भी अन्य पुरुष का चिन्तन न किया हो, यदि मेरा सतीत्व अखण्ड हो, तो इस राक्षसी का विचार पलट जाये यह शत्रुता छोड़कर मित्रता की दृष्टि से मुझे देखने लगे।" ___दमयन्ती की इस प्रार्थना के कारण उसी समय राक्षसी के विचार पलट गये और वह उस का रास्ता छोड़कर न जाने कहाँ लोप हो गयी।
वहां से आगे बढ़ने पर दमयन्ती को दूर से एक नदी दिखायी दी। तृषा के कारण उसका कंठसूख रहा था, इसलिए उसने सोचा कि वहां पहुंचने पर अपनी तृषा शान्त करूँगी। किन्तु जब वह उस नदी के पास पहुंची, तब उसने देखा कि वह तो एक दम सूखी पड़ी है। उस समय उसकी ठीक वही अवस्था हुई, जो जल के भ्रम से बालू के पास पहुँचने पर मृग की होती है। दमयन्ती यदि प्यासी न होती तो अवश्य उस स्थान से योंही आगे बढ़ जाती, किन्तु प्यास के कारण उससे बिना कुछ किये न रहा गया। इसलिए उसने अपने दाहिने पैर की ऐड़ी जमीन पर पटक कर कहा-“यदि मेरा हृदय सम्यग् दर्शन से पूर्ण हो, तो यहां गंगा जल की भांति निर्मल नीर प्रकट हो। उसके सुख से यह वचन निकलते ही उस नदी में निर्मल जल की प्रचण्ड धारा प्रवाहित होने लगी। दमयन्ती उसके द्वारा अपनी तृषा शान्त कर वहां से आगे के लिए चल पड़ी। . दमयन्ती ने सोचा था कि इस रास्ते से वह शीघ्र ही अपनी तापसपुरावली गुफा में पहुंच जायगी, किन्तु यह उसकी भूल थी। उसे अब तक ठीक रास्ता न मिला था और वह इधर उधर भटक रही थी। चलते चलते जब वह थक गयी, तो एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगी। उसी समय एक सार्थ के कुछ आदमी, जो माल लेने गये थे, उधर से आ निकले। दमयन्ती को देखकर उएनमें से एक ने पूछा- “हे भद्रे! तुम कौन हो और यहां पर क्यों बैठी हो? हमें तो तुम कोई देवी सी प्रतीत होती हो!"
दमयन्ती ने कहा—“नहीं, मैं कोई देवी नहीं, एक साधारण मानुषी हूं। इस समय मैं जंगल में ही रहती हूं। किन्तु मुझे तापसपुर जाना हैं इसलिये यदि