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162 नल-दमयन्ती - चरित्र
दमयन्ती मुनिराज का यह वचन सुनकर मौन हो गयी । सुबह मुनिराज पर्वत से उतर कर तापसपुर पधारें और दमयन्ती के अनुरोध से नगर निवासियों को धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात् नगर निवासियों के हृदय में सम्यक्त्व का बीज बोकर मुनिराज वहां से दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर दिये ।
मुनिराज के चले जाने पर दमयन्ती पुनः अपनी गुफा में लौट आयी। वह लीन वस्त्र धारण कर साध्वी की भांति धर्मध्यान में लीन रहने लगी। एक एक करके उसने सात वर्ष उसी गुफा में व्यतीत कर दिये । एक दिन गुफा के बाहद से किसी मुसाफिर ने उससे कहा - " हे दमयन्ती ! मैंने अमुक स्थान में आज तुम्हारे पति को देखा है । '
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मुसाफिर के यह वचन कान में पड़ते ही दमयन्ती का शरीर रोमाञ्चित हो उठा वह उसे देखने के लिए गुफा से बाहर निकल आयी। उसनें चारों ओर नजर दौड़ायी, किन्तु कहीं भी उसे वह मनुष्य न दिखायी पड़ा, जिसने उसे यह प्रिय वचन सुनाये थे। उसने प्रत्येक शब्द अपने कानों से स्पष्ट सुना था, इसलिए यह भी न कह सकती थी, कि उसे किसी प्रकार भ्रम हुआ था। अतः जिस ओर से वह शब्द आया था, उसी ओर वह चल पड़ी और इधर उधर के वृक्षों में उसकी खोज करने लगी। उसने बड़ी देर तक उसकी खोज की, किन्तु कहीं भी उसका पता न चला।
दमयन्ती इससे बहुत निराश हो गयी। उसने अपनी गुफा की ओर वाप लौटने का विचार किया, तो मार्ग में वह रास्ता ही भूल गयी । दमयन्ती अब सचमुच बड़े चक्कर में पड़ गयी। वह कभी खड़ी होती, कभी बैठ जाती और कभी भूमि पर लौटने लगती । निराश और दुःख के कारण उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। वह कहने लगी- " हा दैव ! अब मैं क्या करूं और कहां जाऊँ ?”
बड़ी देर तक इधर उधर भटकने के बाद फिर दमयन्ती एक ओर चल पड़ी। उसे ऐसा मालूम होने लगा, मानो उसे ठीक रास्ता मिल गया है और इस रास्ते से उस गुफा तक पहुँचने में कोई कठिनाई न होगी । परन्तु कुछ दूर आगे बढ़ते ही एक विकरालमुखी राक्षसी ने उसका रास्ता रोक लिया और उसने लाल जीभ लपकाकर कहा - " हे मानुषी ! अब मैं तुझे खा डालूंगी। तूं मेरे