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8 * पहला और दूसरा भव उससे पूछा, “तुमने अचलपुर में और कोई आश्र्चजनक वस्तु देखी है?"
दूत ने कहा-“हाँ, महाराज! मैंने वहाँ विक्रमधन के धन नामक कुमार को देखा, जिसका रूप देखकर मनुष्यों की कौन कहे, दानव और विधाधर भी लज्जित हो जाते हैं। उसे देखकर मुझे विचार आया, कि यह हमारी राजकुमारी के लिए उपयुक्त वर हो सकता है। विधाता ने मानो उसे इसीलिए इस धराधाम में भेजी है। मेरी धारणा है कि यदि यह सम्बन्ध हो जाय, तो मणि- . कञ्चन-संयोग की कहावत चरितार्थ हो सकती है।" .. .
दूत के यह वचन सुनकर राजा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- "तुम स्वयं मेरे कार्य की इतनी चिन्ता रखते हो, यह देखकर मुझे बहुत ही आनन्द हो रहा है। आज सुबह से ही मैं धनवती के विवाह की चिन्ता कर रहा था। ऐसे समय में तुमने राजकुमार धन का पता बताकर मेरी बहुत कुछ न्निन्ता दूर कर दी है। मैं तुम्हारे विचारों से सहमत हूँ। तुम एक बार फिर अचलपुर जाओ
और राजा विक्रमधन से मिलकर उनके राजकुमार से अपनी राजकुमारी के विवाह का प्रस्ताव करो। मेरी धारणा है कि तुम्हारी यह चेष्टा अवश्य ही सफल होगी।" ... जिस समय दूत से यह बातचीत हो रही थी, उस समय धनवती की छोटी बहिन चन्द्रवती भी राजसभा में मौजूद थी। वह इस समाचार से मनही-मन प्रसन्न होती हुई अपनी बहिन धनवती के पास पहुंची और उससे कहने लगी-“बहिन! मैं तुम्हारे लिए एक आनन्द-संवाद लायी हूँ। शायद यह समाचार सुनकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी कि पिताजी ने आज एक दूत को अचलपुर भेजा है और राजा विक्रमधन के राजकुमार से तुम्हारा ब्याह तय करने को कहा है।"
धनवती ने कहा-“बहिन! मेरा भाग्य कहाँ, कि पिताजी को यह विचार आये और वे इसके लिए कोई प्रयास करें। मुझे तुम्हारी इस बात पर विश्वास नहीं होता। उन्होंने शायद किसी दूसरे काम से उसे अचलपुर भेजा होगा, किन्तु तुमने भ्रमवश मेरे ब्याह की बात समझ ली होगी।"
चन्द्रवती ने कहा- “नहीं बहिन! मैंने सारी बातें बड़े ध्यान से सुनी थी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं भूल नहीं कर रही हूँ।"