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श्री नेमिनाथ - चरित 7
राजकुमारी ने कहा, “हे सखी कमलिनी ! तुम सर्वथा एक अपरिचित व्यक्ति की भाँति मुझ से यह प्रश्न क्यों करती हो ? मैं तो समझती हूँ कि मेरी इस अवस्था का कारण तुम्हें भलीभांति मालूम है । तुम तो मेरे हृदय, मेरे जीवन के समान हो। मुझसे मेरा प्रश्न कर मुझे क्यों लज्जित करती हो ?”
कमलिनी ने कहा, “हे सखी! तुम्हारा कहना कुछ कुछ ठीक है। तुम्हारी इस अवस्था का कारण मुझसे सर्वथा छिपा नहीं है। मेरी धारणा है कि तुम राजकुमार धन से मिलने के लिए व्याकुल हो रही हो । जबसे तुमने उस चित्र को देखा, तभी से तुम्हारा इस अवस्था का सूत्रपात हुआ है। मैं यह बात उसी समय ताड़ गयी थी और इसीलिए मैंने उस चित्रकार से तुम्हारे लिए वह चित्र मांग लिया था । अनजान की तरह यह प्रश्न करना केवल मनोविनोद था । बाकी मैं तुम्हारा दु:ख भलीभांति समझती हूँ और इसे दूर करने के लिए चिन्ता भी किया करती हूँ। हाल ही में मैंने एक ज्ञानी से पूछा था कि क्या मेरी सखी का मनोरथ पूर्ण होगा? क्या उसे अभीष्ट वर की प्राप्ति होगी ?” उसने कहा, “उसका मनोरथ अवश्य और शीघ्र ही पूर्ण होगा ।" उसके इस वचन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं। मैं समझती हूँ कि शीघ्र ही तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी और कोई ऐसा उपाय अवश्य निकल आयगा, जिससे यह कठिन कार्य भी सुगम बन जायगा । "
कमलिनी के ये वचन सुनकर धनवती का चित्त कुछ शान्त हुआ। इसके बाद उन दोनों में बहुत देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं । कमलिनी उसे : प्रारब्ध पर भरोसा करने का उपदेश देकर अन्त में अपने वासस्थान को चली
गयी।
इस घटना के कई दिन बाद, एक दिन धनवती दिव्य वस्त्रालंकार धारण कर अपने पिता को प्रणाम करने गयी । उसे देखकर राजा को बहुत ही आनन्द हुआ। उसे विदा करने के बाद वे अपने मन में कहने लगे - “मेरी पुत्री की अवस्था ब्याह करने योग्य हो गयी है। अब शीघ्र ही इसके लिए मुझे उपयुक्त वर की खोज करनी चाहिए ।"
जिस दिन राजा सिंह को यह विचार आया, ठीक इसी दिन राजा विक्रमधन के यहाँ से उनका वह दूत वापस आया, जिसे उन्होंने किसी राजकाज वंश अचलपुर भेजा था। राज-काज की सब बातें पूछने के बाद राजा ने