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6 * पहला और दूसरा भव
रहीं, देवाङ्गनाएँ भी मोहित हुए बिना नहीं रह सकतीं। मैंने तो केवल अपने नेत्रों को तृप्त करने के लिए ही यह चित्र अंकित किया है।" __धनवती खड़ी-खड़ी चित्रकार की यह सब बातें सुनती रही। सच बात तो यह थी कि उस चित्र को देखकर वह मुग्ध हो गयी थी और स्वयं भी चित्र की भांति गतिहीन बन गयी थी। उसे वह चित्र हाथ से छोड़ने की इच्छा ही न होती थी। उसकी यह अवस्था देखकर कमलिनी ने उसका मनोभाव ताड़ लिया। उसने चित्रकार के निकट उसके कला-कौशल और उसकी निपुणता की भूरि भूरि प्रशंसा कर, उससे उस चित्र की याचना की। चित्रकार कमलिनी की यह याचना अमान्य नहीं कर सका। राजकुमारी के विनोदार्थ उसने सहर्ष वह चित्र कमलिनी को दे दिया।
चित्र को देखकर राजकुमारी अपनी सखियों के साथ अपने वास-स्थान को लौट आयी। परन्तु उसका मन अब उसके अधिकार में न था। जिस प्रकार हंसिनी को मरुभूमि में सन्तोष नहीं होता, उसी प्रकार उसकी तबियत अब राजमहल में न लगती थी। खाना, पीना और सोना उस के लिए हराम हो गया था। सारी रात बिछौने में करवटें बदलतें ही बीत जाती थी। दिन को जब देखो तब, वह गाल पर हाथ रखे राजकुमार धन का ही ध्यान किया करती थी। इस व्यग्रता के कारण उसकी स्मरण शक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता था, फलत: वह जो कुछ कहती या करती थी, वह तुरन्त भूल जाती थी। जिस प्रकार योगिनी अपने इष्टदेव का और निर्धन मनुष्य धन का ही चिन्तन किया करता है, उसी प्रकार वह सदा राजकुमार का ही चिन्तन किया करती थी। उसके चेहरे की प्रसन्नता मानो सदा के लिए लोप हो गयी थी और उसका स्थान उदासीनता ने अधिकृत कर लिया था। उसका शरीर धीरे-धीरे कृश हो गया और रूपलावण्य में भी बहुत कुछ कमी आ गयी। ___उसकी यह अवस्था देखकर एक दिन उसकी प्रिय सखी कमलिनी ने उससे पूछा, “बहिन! तुम्हें आजकल क्या हो गया है ? न अब तुम पहले की भाँति हँसती हो न बोलती हो। चेहरा पीला पड़ गया है और शरीर दुबला हो गया है। रात दिन अपने मन में न जाने क्या सोचा करती हो? क्या मैं जान सकती हूँ कि तुम्हारी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है?"