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160 * नल-दमयन्ती-चरित्र ज्ञान उत्पन्न हुआ। मुझे पूर्व जन्म की सभी बातें इस प्रकार याद आने लगी, मानो कल के किये हुए कार्य हो। इससे मुझे वैराग्य आ गया और मैंने अनशन कर अपना वह शरीर त्याग दिया।
___ इस बार मृत्यु के बाद मैं सौधर्म देवलोक में देव हुआ। मैं इस समय कुसुम समृद्ध विमान में वास करता हूं, मेरा नाम कुसुम प्रभ है। आपके प्रसाद से अब मैं स्वर्गीय सुख उपभोग करता हूं। मेरे दिन बड़े आनन्द में कट रहे हैं। यदि आपका धर्मवचन मेरे कानों में न पड़ा होता, तो मेरी न जाने क्या दशा होती? शायद मैं अनन्त काल तक उसी पाप पंक में फँसा रहता और मेरी अवस्था उत्तरोत्तर खराब होती जाती। इस उपकार के कारण मैं आप का चिरऋणी रहूंगा, आप को कभी न भूलूंगा। इस समय अवधिज्ञान से मुझे मालूम हुआ, कि आप यहां पधारी है, इसलिए मैं आपके दर्शन करने आया हूं। मैं अपने को आपका धर्मपुत्र मानता हूं।"
इस प्रकार दमयन्ती को अपना परिचय देकर उन तापसों से कहा“भाइयो! मेरे उन अपराध और आचरणों को आप लोग क्षमा कर दें, जो मैंने क्रोध के कारण किये थे। आप लोगों को अब श्रावकधर्म प्राप्त हुआ है, जो सब धर्मो में श्रेष्ठ है। इस पर दृढ़ रहना और रत्न की भांति यत्नपूर्वक इसकी रक्षा करना।"
इतना कह वह देव उठ खड़ा हुआ और क्षणमात्र में उस गुफा से एक सर्प का शरीर उठा लाया। उसे उसने नन्दावृक्ष पर लटका कर पुन: उन तापसों से कहा-"जो मनुष्य क्रोध करता है, वह इसी तरह भुजंग होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा शिक्षा देने के लिए ही मैं अपने इस शरीर को यहां उठा लाया
कुलपति यद्यपि पहले से ही सम्यक्त्व धारी था, तथापि कुसुमप्रभ की बातें सुनकर उसे विशेष रूप से वैराग्य आ गया। उसने केवली भगवान को वन्दन कर उनसे दीक्षा की याचना की। केवली भगवान ने कहा-“तुम्हें मेरे गुरुदेव यशोभद्रसूरि दीक्षा देंगे। मैं तुम्हें दीक्षा देने में असमर्थ हूं।"
केवली भगवान के इस उत्तर से कुलपति को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। किन्तु उसने उस आश्चर्य को प्रकट न कर एक दूसरा ही प्रश्न पूछा। उसने