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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 159 तपोवन के तापस पूजते न थे। वे कभी वचनों द्वारा भी मुझे सन्तुष्ट न करते थे। मैं अभिमानी तो था, ही इसलिए उनके इस कार्य से मुझे क्रोध आ गया और मैं वहां दूसरे स्थान को चला गया।" उस स्थान को जाते समय, रात्रि के घोर अन्धकार में मैं एक गुफा के पास ठोकर खाकर गिर गया और मेरे कई दांत टूट गये। मैं इस वेदना से व्याकुल हो उठा और सात दिन तक वहीं पड़ा रहा। परन्तु इतने पर भी उन तापसों को दया न आयी। मेरी सेवा सुश्रुषा तो करना दूर रहा, उन्होंने मुझे मुँह से भी न बुलाया। बल्कि यों कहना चाहिए कि जिस प्रकार घर से सर्प निकल जाने पर लोग प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार वहां से मेरे चले आने के कारण वे सब प्रसन्न हो उठे। उनकी यह मनोवृत्ति देख कर मुझे और भी क्रोध आ गया। इसी दु:खानुबन्धी क्रोध में मेरी मृत्यु हो गयी और मैं इन्हीं तापसों के वन में एक महासर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। इसके बाद हे देवि! एक बार आप पतिवियोग से दुःखित हो कहीं जा रही थी। उस समय आप को देखते ही मैं आपको काटने दौड़ा। परन्तु आप ने मुझे देखते ही नमस्कार मन्त्र का उच्चारण किया। इसलिए मैं शक्तिहीन बन गया और मेरी गति इस प्रकार रुक गयी, जैसे किसी ने मुझे किसी बन्धन द्वारा जकड़ दिया हो। इसके बाद मैं फिर एक गुफा में जा छिपा और मेंढक. आदि जीवों को खा-खाकर अपने दिन बिताने लगा। इस घटना के कुछ दिन बाद, एक दिन घोर वृष्टि हो रही थी। आपको अनेक तापस घेरे हुए बैठे थे और आप उन्हें धर्मोपदेश दे रही थी। सौभाग्य वश आप के कुछ शब्द मेरे कान में भी पड़ गये। आप ने तापसों को बतलाया था कि जो जीवों की हत्या करता है, वह संसार में सर्वत्र उसी तरह दुःखित होता है जिस प्रकार मरुभूमि में पथिक। आपके यह वचन सुनकर मैं अपने मन में कहने लगा—“मैं तो नित्य ही जीवहिंसा में लिप्त रहता हूं, अत: मेरी न जाने कौनसी गति होगी?' फिर मैं इसी बात पर विचार करने लगा और रात दिन अपनी भविष्य चिन्ता से व्याकुल रहने लगा। चिन्ता करते करते मुझे ऐसा मालूम होने लगा मानो इस तापसों को मैंने कहीं देखा है। वारंवार इसी विषय पर विचार करने से मुझे निर्मल जाति स्मरण
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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