SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 * नल-दमयन्ती-चरित्र दमयन्ती तथा उसके समस्त संगी यह देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। दमयन्ती मुनिराज को वन्दन कर उनके चरणों के निकट बैठ गयी। पश्चात् उसके संगी भी मुनिराज को वन्दन कर यथोचित स्थान में बैठ गये। इसी समय उस साधु के गुरु यथोभद्र सूरि वहां आ पहुंचे। उन्हें यह जानकर बहुत ही आनन्द हुआ कि उसके शिष्य को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। वे भी उन्हें वन्दन कर उनके सामने बैठ गये। इस अवसर पर करुणा नगर सिंह केसरी ने सबको प्रसंगोचित धर्मोपदेश दिया। उन्होंने कहा- “हे भव्य जनो ! संसार में मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। न जाने कितनी योनियों में भटकने के बाद जीव को पुण्य प्रभाव से इसकी प्राप्ति होती है, इसलिए इसे व्यर्थ न गँवाकर सफल करना चाहिए। जीव दया रूप जिन धर्म ही इस असार संसार में सार रूप है। यह मनुष्य जन्म को सफल बना देता है, इसलिए हे भव्य जनों! यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो, तो जिन धर्म स्वीकार करो!" . . इस प्रकार धर्मोपदेश देने के बाद मुनि ने तापस कुल पति का संशय दूर करने के लिए कहा-“हे तापस कुलपते! इस दमयन्ती ने तुम्हें जो धर्म बतलाया है, वह बहुत ही उत्तम है। यह महासती ज़िन धर्म में अनुरक्त है, इसलिए यह मिथ्या वचन नहीं कह सकती। यह तो तुम अपनी आंखों से भी देख चुके हो, कि इसके सतीत्व के प्रभाव से जितने स्थान में तुम लोग बैठे थे, उतने स्थान में वर्षा की एक बूंद भी न गिरी और उसके चारों ओर मूसलाधार वृष्टि होती रही। वास्तव में इस सती का प्रभाव वर्णनातीत है। इसके सतीत्व और श्राविका धर्म के कारण जंगल में भी देवतागण इसे सदा सहाय करते हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों से इसकी रक्षा होती है और कोई भी इसका बाल बांका नहीं कर पाता। एक बार इस सार्थवाह के संगियों को डाकुओं ने घेर लिया था। उस समय इस महासती ने केवल अपने हुंकार द्वारा उन्हें भगाकर सार्थ की रक्षा की थी।" ____ इस प्रकार केवली भगवान दमयन्ती की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर रहे थे। इतने में वहां एक महर्द्धिक देव आ पहुंचा। वह दमयन्ती को वन्दन कर कहने लगे-“हे भद्रे ! मैं इस तपोवन के कुलपति का कुपर नामक शिष्य था और तपश्चर्या के कारण क्रोधी हो गया था। पंचाग्नि का साधक होने पर भी मुझे
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy